बुधवार, 14 जनवरी 2015

*निज स्वरूप में प्रवेश*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*निज स्वरूप में प्रवेश~*
फिर २८१ का पद -
२८१. साधु प्रति उपदेश(गुजराती) । ललित ताल
निर्पख रहणा, राम राम कहणा,
काम क्रोध में देह न दहणा ॥टेक॥
जेणें मारग संसार जाइला, तेणें प्राणी आप बहाइला ॥१॥
जे जे करणी जगत करीला, सो करणी संत दूर धरीला ॥२॥
जेणें पंथैं लोक राता, तेणैं पंथैं साधु न जाता ॥३॥
राम नाम दादू ऐसें कहिये, राम रमत रामहि मिल रहिये ॥४॥
उक्त पद सुनाया ।
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फिर गरीबदासजी ने भविष्य के लिये पू़छा - तब दादूजी ने कहा - हमने तो भविष्य की बात निरंजन राम पर ही रखी है । उनकी इच्छानुसार ही होगा -
दादू राखी राम पर, अपनी आप समाह ।
दूजे को देखू नहीं, हो है ज्यों निरवाह ॥७३॥
(शूरातन अंग २४)
अविनाशी के आसरे, अजरावर की ओट ।
दादू शरणे साँच के, कदे न लागे चोट ॥६८॥
(काल अंग २५)
अंत मे दादूजी महाराज ने अपने मुख कमल से यह साखी उच्चारण की थी -
जेते गुण व्यापैं जीव को, तैते तैं तजे रे मन ।
साहिब अपने कारणैं, भलो निबाह्यो पण ॥११॥
(अबिहड़ अंग ३७)
*फिर तत्काल ब्रह्मलीन हो गये थे ।*
*इति श्री प्रसंग कथायें समाप्त*

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