गुरुवार, 29 जनवरी 2015

२०. साधु को अंग ~ ९

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*२०. साधु को अंग* 
*ज्यौं हम खांहि पिवैं अरु बोढ़हिं,*
*तैसें ही ये सब लोग बखानै ।*
*ज्यौं जल मैं ससि कै प्रतिबिंब ही,*
*आप समा जल जंत प्रवांनै ॥*
*ज्यौं खग छांह धरा परि दीसत,*
*सुन्दर पंखि उडै असमांनै ।*
*त्यौं शठ देहनि के कृत देखत,*
*संतनि की गति क्यौं कोऊ जांनै ॥९॥*
*सन्तों की गूढ गति* : साधारण सांसारिक प्राणी जैसा वह खाता पीता या पहनता है वैसा ही दूसरों को भी समझता है ।
या जैसे कोई जलचर प्राणी जल में पड़ते हुए चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को अपने ही समान कोई जलचर प्राणी समझता है । 
या जैसे कोई पक्षी आकाश में उड़ रहा है; परन्तु उसके पंखों की छाया भूमि पर पड़ी दिखायी देती है । 
इसी तरह मूर्ख जन देह का कृत्य देख कर ही सन्त के विषय में अपनी एक आनुमानिक अवधारणा बनाते हैं । 
क्योंकि, *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं, सन्तों की वास्तविकता जानना सब के वश की बात नहीं है ॥९॥ 
(क्रमशः)

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