शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

२०. साधु को अंग ~ १०

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*२०. साधु को अंग* 
*जौ खपरा कर लै घर डोलत,*
*मांगत भीख हि तौं नहिं लाजै ।*
*जौ सुख सेज पटंबर अंबर,*
*लावत चंदन तौ अति राजै ॥*
*जौ कोउ आइ कहै मुख तैं कछु,*
*जानत ताहि बयारि हि बाजै ।*
*सुन्दर संयय दूरि भयौ सब,*
*जो कछु साधु करै सोई छाजै ॥१०॥*
*सन्तों के सभी कर्म उचित* : वह सन्त कभी हाथ में भिक्षापात्र लेकर घर घर भिक्षा माँगता दिखायी देता है । उस कृत्य से उस को कोई संकोच नहिं लगता । 
कभी अच्छे से अच्छे विछौनों से सजी हुई शय्या पर सोता है, कभी वह चन्दन का लेप लगाता है तो भी वह सुन्दर लगता है । 
कभी जोई उसके पास आकर उसके विषय में अच्छा बुरा बोलने लगता है तो वह इतना ही समझता है कि मानों उसके कानों में कोई वायु गूँज रही है । इससे अधिक वह उस पर ध्यान नहीं देता । 
परन्तु, *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - क्योंकि उस सन्त के सभी सांसारिक भ्रम दूर हो चुके हैं, अतः वह सन्त जो कुछ भी कर्म करता है वह उसी को शोभा देता है ॥१०॥ 
(क्रमशः)

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