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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२०. साधु को अंग*
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*जौ खपरा कर लै घर डोलत,*
*मांगत भीख हि तौं नहिं लाजै ।*
*जौ सुख सेज पटंबर अंबर,*
*लावत चंदन तौ अति राजै ॥*
*जौ कोउ आइ कहै मुख तैं कछु,*
*जानत ताहि बयारि हि बाजै ।*
*सुन्दर संयय दूरि भयौ सब,*
*जो कछु साधु करै सोई छाजै ॥१०॥*
*सन्तों के सभी कर्म उचित* : वह सन्त कभी हाथ में भिक्षापात्र लेकर घर घर भिक्षा माँगता दिखायी देता है । उस कृत्य से उस को कोई संकोच नहिं लगता ।
कभी अच्छे से अच्छे विछौनों से सजी हुई शय्या पर सोता है, कभी वह चन्दन का लेप लगाता है तो भी वह सुन्दर लगता है ।
कभी जोई उसके पास आकर उसके विषय में अच्छा बुरा बोलने लगता है तो वह इतना ही समझता है कि मानों उसके कानों में कोई वायु गूँज रही है । इससे अधिक वह उस पर ध्यान नहीं देता ।
परन्तु, *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - क्योंकि उस सन्त के सभी सांसारिक भ्रम दूर हो चुके हैं, अतः वह सन्त जो कुछ भी कर्म करता है वह उसी को शोभा देता है ॥१०॥
(क्रमशः)

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