शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

= १२१ =

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१२१.(सिंधी) विरह विलाप । मल्लिका मोद ताल ~
हाल असां जो लालड़े, तो के सब मालूमड़े ॥टेक॥
मंझे खामा मंझि बराला, मंझे लागी भाहिड़े ।
मंझे मेड़ी मुच थईला, कै दरि करियां धाहड़े ॥१॥
विरह कसाई मुं गरेला, मंझे बढ़े माइहड़े ।
सीखों करे कवाब जीला, इयें दादू जो ह्याहड़े ॥२॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, विरहीजनों का विलाप दिखा रहे है कि हे हमारे प्यारे परमेश्‍वर ! असां = हमारी, हाल = दशा स्थिति, लालड़े = हे ईश्‍वर ! “तो के सब मालूम ड़े” = आपको हमारा हाल सब मालूम है ।
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हमारे, मंझे = भीतर, खामा = दबी हुई विरह अग्नि, बराला = हमको जला रही है । भीतर, भाहिडे = जलन लग रही है ।
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मंझे = भीतर, मेड़ी = मुझको आप, मुच थईला = त्यागकर अलग हो रहे हो । हम, कै = किसके, दरि = दरवाजे, जाकर, करिया धाहड़े = पुकार करे ।
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यह विरह रूप कसाई, मुगरेला = मेरा गला, मंझे = भीतर, बढ़े = काटकर, माइहड़े = मेरे माँस को,
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सीखों करै = लोहे के तकवों पर । कवाब जीला = सेक रहा है कवाब की तरह । इयें = ऐसे, ह्याहड़े = हम दीनता से पुकार रहे हैं ।
(क्रमशः)

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