#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोइ ।
मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यूं था त्यूं ही होइ ॥
दादू है को भय घणां, नाहीं को कुछ नाहीं ।
दादू नाहीं होइ रहु, अपणे साहिब माहिं ॥
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@Osho Prem Sandesh ~ मैं !
अगर आप एक क्षण भी शांत होकर भीतर खोजने जायेंगे कि कहां है ‘‘मैं’’ कौन सी चीज है मैं, तो आप एक दम हैरान रह जायेगे कि भीतर कोई ‘‘मैं’’ खोज से मिलने का नहीं है। जितना गहरा खोजते जाओगे, उतना ही पाओगे, कि भीतर एक सन्नाटा और शून्य है, वहां कोई मैं नहीं है, वहां कोई ‘‘आई’’ वहां कोई ‘‘ईगो’’ नहीं है।
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एक भिक्षु हुआ नाग सेन उसे एक दिन सम्राट मिलिन्द ने निमंत्रण दिया था कि तुम आओ दरबार में। जो राजदूत गया था निमंत्रण देने, उसने नाग सेन को कहा कि भिक्षु नाग सेन, आपको बुलाया है सम्राट मिलिन्द ने। मैं निमंत्रण देने आया हूं। तो नाग सेन कहने लगा, मैं चलूंगा जरूर; लेकिन एक बात विनय कर दूँ; पहले ही कह दूँ कि भिक्षु नाग सेन जैसा कोई है नहीं। यह केवल एक नाम है, कामचलाऊ नाम। आप कहते है तो मैं चलूंगा जरूर, लेकिन ऐसा कोई आदमी कहीं है नहीं।
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राज दूत ने जाकर सम्राट को कहा की बड़ा अजीब आदमी है वह। वह कहने लगा कि मैं चलूंगा जरूर, लेकिन ध्यान रहे कि भिक्षु नाग सेन जैसा कहीं कोई है नहीं, यह केवल एक कामचलाऊ नाम है। सम्राट ने कहा, अजीब सी बात है, जब वह कहता है, मैं चलूंगा। आयेगा वह। वह आया भी रथ पर बैठकर। सम्राट ने द्वार पर स्वागत किया और कहा भिक्षु नाग सेन, हम स्वागत करते है आपका।
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वह हंसने लगा। उसने कहा, स्वागत स्वीकार करता हूं। लेकिन स्मरण रहे भिक्षु नाग सेन जैसा कोई आदमी नहीं है।
सम्राट कहने लगा बड़ी अजीब पहली है। आगर आप-आप नहीं है तो कौन है? कौन आया है इस रथ पर बैठ कर, कौन स्वागत स्वीकार रहा है, कौन दे रहा है उत्तर?
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नाग सेन मुड़ा और उसने कहा, देखते है, सम्राट मिलिन्द, यह रथ खड़ा है जिस पर मैं बैठ कर आया हूं। सम्राट ने कहां, हाँ यह रथ है। तो भिक्षु ने कहां की घोड़ों को निकला कर अलग कर दिया जाये, घोड़े अलग कर दिये, तब भिक्षु नाग सेन ने सम्राट से पूछा की क्या ये घोड़े रथ हैं?
सम्राट ने कहां, घोड़े रथ कैसे हो सकते है? घोड़े अलग कर दिये गये, सामने के डंडे जिनसे घोड़े बंधे थे, खिंचवा लिए गये।
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उसने पूछा क्या ये रथ है?
सिर्फ दो डंडे रथ कैसे हो सकते हैं? डंडे अलग कर दिये गये, चाक निकलवा दिये गये, और एक-एक अंग रथ का निकलता चला गया। और एक-एक अंग पर सम्राट को कहना पडा कि नहीं, ये रथ नहीं है। फिर आखिर पीछे शून्य बच गया, वहां कुछ भी नहीं बचा।
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भिक्षु नाग सेन पूछने लगा, रथ कहां है अब? रथ कहा है अब, और जितनी चीजें मैंने निकालीं, तुमने कहा ये भी रथ नहीं, ये भी रथ नहीं, ये रथ गया कहां, अब ये रथ कहां है?
तो सम्राट चौंक कर खड़ा हो गया - रथ एक जोड़ था। रथ कुछ चीजों का संग्रह-मात्र था। रथ का अपना होना नही है, कोई ‘‘ईगो’’ नहीं है। रथ एक जोड़ है।
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आप खोजें कहां है आपका ‘‘मैं’’ और आप पायेंगे कि अनंत शक्तियों के एक जोड़ है; मैं कहीं भी नहीं है। और एक-एक अंग आप सोचते चले जायें तो एक-एक अंग समाप्त होता चला जाता है, फिर पीछे शून्य रह जाता है। उसी शून्य से प्रेम का जन्म होता है। क्योंकि वह शून्य आप नहीं है वह शून्य परमात्मा है।
ओशो

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