बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

*= तृतीय बिन्दु =गृह त्याग और पेटलाद गमन =*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ तृतीय विन्दु ~*
*=गृह त्याग और पेटलाद गमन =*
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दादूजी ने कुटुम्ब के राग का बन्धन तो प्रथम अपने व्यवहार से काट ही दिया था । अर्थात् अधिक धन गरीबों आदि को लुटाने से सब कुटुम्ब के लोग दादूजी से उपराम हो ही गये थे । अतः दादूजी को घर त्यागने में कोई विशेष कठिनाई नहीं पड़ी । पत्नी पीहर थी, इससे वे निर्बन्धन ही थे । घर को त्याग कर विचर गये और घूमते घूमते पेटलाद नगर पहुँचे ।
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दादूजी को १८ वर्ष की अवस्था में संपति पूर्ण घर तथा(नान्ही कमलासी) कमला के समान अर्थात् लक्ष्मी के समान परमसुन्दरी अपनी धर्म पत्नी नान्ही का त्याग करते हुये एक क्षण भी नहीं लगा । इससे दादूजी महाराज के महान् वैराग्य परिचय मिलता है । जिस प्रकार ने बुद्ध ने घर पत्नी आदि का त्याग कर दिया था उसी प्रकार दादूजी ने भी त्याग दिया था ।
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पेटलाद नगर के बाहर एक वट वृक्ष के पास बालकों का समूह खेल रहा था । दादूजी को देखकर और सब बालक तो भाग गये । किन्तु ज्ञान और माणक नामक दो बालक खड़े रहे ।
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दादूजी के पास आने पर हाथ जोड़कर प्रणाम किया और बोले - भगवन् ! वट की शीतल छाया में विराजिये । दादूजी ने कहा - भाइयों ! वट की छाया से शीतलता प्राप्त नहीं होती है, तीनों तापों से सब संसार जल रहा है । त्रिताप की जलन मिटे उसकी छाया में ही बैठना चाहिये ।
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इस पर दोनों बालकों ने जिज्ञासा करके बैठने की प्रार्थना करते हुये अपना वस्त्र आसन के रूप में बिछा दिया । दादूजी महाराज भी बालकों की श्रद्धा भक्ति देखकर विराज गये ।
= इति श्री दादूचरितामृत तृतीय बिन्दु समाप्त =
(क्रमशः)

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