बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१२६. विरह विलाप । झपताल ~
मरिये मीत विछोहे, जियरा जाइ अंदोहे ॥टेक॥
ज्यों जल विछुरे मीना, तलफ तलफ जिय दीन्हा,
यों हरि हम सौं कीन्हा ॥१॥
चातक मरै पियासा, निशदिन रहै उदासा,
जीवै किहि बेसासा ॥२॥
जल बिन कमल कुम्हलावै, प्यासा नीर न पावै,
क्यों कर तृषा बुझावै ॥३॥
मिल जनि बिछुरो कोई, बिछुरे बहु दुख होई,
क्यों कर जीवै जन सोई ॥४॥
मरणा मीत सुहेला, बिछुरन खरा दुहेला,
दादू पीव सौं मेला ॥५॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विरह - विलाप का स्वरूप कहते हैं कि हे हमारे मित्र परमेश्‍वर ! आपके दर्शनों के वियोग से, अब तो हम विरहीजन मर रहे हैं । और हमारे जीव में यह आपकी अप्राप्तिरूप पश्‍चात्ताप ही साथ जायेगा ।
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जैसे मछली जल के वियोग में अपने प्राण तड़फ कर त्याग देती है, वैसे ही हे हरि ! हम विरहीजन भी आपके दर्शनों के बिना तलफ कर जीव दे रहे हैं ।
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जिस प्रकार पपैया स्वाति - नक्षत्र की बूँद के वियोग में रात - दिन उदास रहकर जल के बिना पुकारता है,
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जैसे प्यासा कमल जल के बिना सूख जाता है, अपनी प्यास नीर के बिना किससे बुझावे ?
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इसी प्रकार परमेश्‍वर से मिलकर कोई भी विरहीजन भक्त नहीं बिछुड़ते, क्योंकि परमेश्‍वर से बिछुड़ने से विरहीजनों को बहुत दुःख होता है । आपके विरहीजन भक्त आपके वियोग में कैसे जीवें ?
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हे मित्र ! मरणा तो हमारे लिये ‘सुहेला’ कहिए सुख रूप है, परन्तु आपसे वियोग होना भारी दुःख है । इसलिये हम विरहीजनों से आप मिलाप करिये ।
(क्रमशः)

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