शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

= १९४ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
सोने सेती बैर क्या, मारे घण के घाइ । 
दादू काटि कलंक सब, राखै कंठ लगाइ ॥ 
पाणी माहैं राखिये, कनक कलंक न जाहि । 
दादू गुरु के ज्ञान सों, ताइ अगनि में बाहि ॥
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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साभार : @Nitin Aggarwal ~ 
Jai ho AGHOR ~ अघोर 

औघड़ वाणी : सच्चा साधक एक स्वर्ण के पिंड के सामान होता है । जिसे गुरु खोज कर पात्र बनाते हैं । जिसमे गुरु उसे तपाते हैं पीटते हैं । पात्र के रूप में ढाल देते हैं । उस पात्र में अपन ज्ञान का अमृत उड़ेल देते हैं । पर उस पात्र की साफ सफाई और रख रखाव साधक के हाथ में होता है । 
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साफ करके गन्दगी हटा देना आसान है पर कठिन है उसको चमकाना । चमकाने की प्रक्रिया कठिन परिश्रम और लगन से पूर्ण होती है । अंत में चमकता हुआ पात्र श्रद्धा का विषय बन जाता है । अक्सर सब कहते हैं जब संतो के संग होता हूँ मन शुद्ध है और जब संसार में आता हूँ सारी बातें भूल कर संसारिकता में लिप्त हो जाता हूँ । 
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ऐसे में ज्ञान को आत्मसात करने की क्षमता की कमी दर्शाती है । संत यह नहीं कहते कि संसार में संत बनके दिखाओ । संत के ज्ञान को आत्मसात कर अपने क्रिया कलापों में निवेशित करो । क्रोध लोभ मोह माया तो अवश्यम्भावी है पर उनको दूसरी दिशा में भटकना होगा । इसके उपरान्त जनित भाव स्वयं ही उस दिशा में भटक जायेगा । 
अलख आदेश ।।।

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