शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

*= *प्रभु का दर्शन* =*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ पंचम बिन्दु ~*
*= *प्रभु का दर्शन* =*
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*प्रभु का दर्शन* - दादूजी को प्रणाम करके वह अप्सरा स्वर्ग में जाकर देवराज को बोली - आपने मुझे जिन के पास भेजा था, वे तो परम निष्काम ज्ञानी संत हैं । उन्हें आपके पद की लेश मात्र भी इच्छा नहीं है । मैंने सर्व प्रकार की चेष्टायें करके उनकी अच्छी प्रकार परीक्षा की है ।
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उनसे आपको लेशमात्र भी शंका नहीं करनी चाहिये । उनकी ओर से तो आप परम निर्भय रहें । उनके भजन में आपको विघ्न करने का विचार फिर कभी भी नहीं करना चाहिये । वे तो सर्वात्मरूप संत हैं । उनसे तो किसी भी प्रकार से किसी भी प्राणी का अनहित नहीं हो सकता । मेरा तो ऐसा ही निश्चय है ।
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अप्सरा की वार्ता सुनकर इन्द्र निश्चिन्त हो कर परमानन्द में निमग्न हो गये । इधर दादूजी का वह तपस्या का कार्य - क्रम छः वर्ष तक चलता रहा । अंत में प्रभु ने आपको दर्शन दिया और कहा - अब मौन रखना त्याग दो, अधिकारियों को अधिकारानुसार उपदेश दो । तरु पत्ते छोड़ कर दूध पान किया करो, कहा भी है -
छप्पय -
"प्रभु आज्ञा तज मौन, पात तरु भोजन त्यागी ।
लीजे भोजन दूध, देत दर्शन बड़ भागी ॥
आदित्य कोटि प्रकाश, तासु तन शोभा सोहै ।
दे जनको वरदान, देख साधन मन मोहै ॥
भये जु अन्तर्धान प्रभु, दुग्ध पान भोजन किये ।
दादू दीन दयाल को, करडाले दर्शन दिये ॥
(संत गुण सागर तरंग ३)
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प्रभु का अद्भुत स्वरूप देखकर दादूजी परमानन्द में निमग्न हो गये । फिर प्रभु ने वर माँगने को कहा - तब दादूजी बोले, प्रभो ! आपने जो काँकरिया तालाब पर निर्गुण भक्ति का उपदेश किया था, वह निर्गुण भक्ति मेरे हृदय में सदा बनी रहनी चाहिये । तथा उस का उपदेश द्वारा सदा विस्तार करता रहूँ यही वर मुझे दीजिये । दादूजी की इच्छानुसार उक्त वर देकर प्रभु वहां ही देखते देखते अन्तर्धान हो गये ।
(क्रमशः)

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