#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
एक कहूँ तो दोइ हैं, दोइ कहूँ तो एक ।
यों दादू हैरान है, ज्यों है त्यों ही देख ॥
दादू विरह जगावे दर्द को, दर्द जगावे जीव ।
जीव जगावे सुरति को, पंच पुकारैं पीव ॥
==========
साभार : Bhakti
सद्गुरु कबीर साहेब से परमात्मा के बारे में किसी ने प्रश्न किया कि,
"परमात्मा एक है या अनेक और .जीव (आत्मा) से उसका क्या सम्बन्ध है।
इस पर सद्गुरु कबीर साहेब कहते हैं:-
"एक कहूँ तो है नहीं, दो कहूँ तो गारि ।
जैसा है वैसा ही है, कहैं कबीर विचार॥"
अर्थात परमात्मा एवं आत्मा एक नहीं है और परमात्मा एवं आत्मा अलग-अलग भी नहीं है, क्योंकि जैसी आत्मा है वैसा ही परमात्मा है और जैसा परमात्मा है वैसी ही आत्मा है। इनमें कोई अंतर नहीं है। सद्गुरु कबीर साहेब कहते हैं कि विचार करिये अर्थात यह चिंतन योग्य विषय है।
.
चुम्बक लोहे को अपने जिस चुम्बकीय बल(अदृश्य डोर या शक्ति) से अपनी ओर खींचता है, उसे "भगवान की कृपा, गाड लव, अल्लाह का नूर आदि" कहते हैं। और लोहे के खंड(आत्मा) चुम्बक(परमात्मा) के चुम्बकीय गुणों से(अपनी शुद्धता के अनुरूप) जो प्रभावित होने का गुण है वही भक्ति है तथा चुम्बकीय बल की अलख डोर जिसे सद्गुरु कबीर साहब 'अधर तार कहते हैं' को पकड़कर चुम्बक(परमात्मा) की और बढने की क्रिया को 'साधना' कहते हैं ।
.
सद्गुरु कबीर साहब कहते हैं-
"प्रेम जगावे विरह को, विरह जगावे जीव ।
जीव जगावे पीव को, वही जीव वही पीव॥"
आत्मा(लोहे का खंड) जब पाँच तत्व के संयोग से शरीर धारण करती है, तब तीन गुणों के प्रभाव से विकार ग्रस्त(पतित) होने लगती है और परमात्मा से दूर होने लगती है। जैसे-जैसे यह आत्मा क्रमशः छः प्रकार की देह "(१)हंस (२)कैवल्य (३)महाकारण (४)कारण (५)सूक्ष्म और (६)स्थूल" को अपनी बढती अशुद्धता के कारण जैसे-जैसे हंस देह से गिरते क्रम में स्थूल शरीर को धारण करती है वैसे-वैसे ही आत्मा-परमात्मा के बीच की दूरी बढ़ जाती है, और आत्मा स्थूल देह में परमात्मा के अनुभूति को भूल ही जाती है ।
.
देह के शुद्ध से अशुद्ध और अशुद्ध से शुद्ध करने की क्रिया को संस्कार एवं विधि को कर्म कहते हैं। धर्म ग्रंथो में जन्म- मरण, स्वर्ग-नर्क और पुनर्जन्म तथा विभिन्न योनियों में आवागमन में संस्कार एवं कर्म के प्रधान भूमिका को स्वीकार किया गया है। अतः संस्कार एवं कर्म ही देह की शुद्धता(आत्मा की पवित्रतता को निर्धारित करते हैं) जिससे आत्मा को परमात्मा के अनुकूलन की अनुभूति प्राप्त कर सके। किन्तु आत्मा बिना 'अधर तार' को पकडे(बिना साधना किये) परमात्मा तक नहीं पहुच सकती।
.
परमात्मा से आत्मा का मिलाप करने में सद्गुरु कि दया की आवश्यकता होती है, जो सीधा एवं सुगम(सहज) मार्ग दिखलाते हैं, और उसके योग्य बननें के लिए समुचित संस्कार देते हैं। नाना धर्मं, पंथ एवं संप्रदाय वल जीव(शरीरधारी आत्मा) को संस्कारित कर परमात्मा से मिलन का मार्ग दिखाते हैं। गुर अपने शिष्य को वही संस्कार एवं मार्ग दे पाते हैं, जिसके वे स्वयं राही हैं, एवं जितनी उनकी अपनी पहुँच है।
.
जीव जो इस स्थूल शरीर में आगया है; अपने को पुनः परमात्मा से परिचय करने के लिए जब उद्धत होता है, तब सद्गुरु की खोज करता है। सद्गुरु की खोज आसान कार्य नहीं है। किन्तु सद्गुरु के मिल जाने पर परमात्मा से साक्षात्कार अवश्य ही सुगम हो जाता है। परमात्मा को पहचानने के लिए पहले अपनी ही आत्मा को पहचानना होगा। क्योंकि जब तक हम आपनी आत्मा को नहीं पहचानेगें तो उसके समर्थ रूप को कैसे पहचान पाएंगे ?

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें