#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
हो ऐसा ज्ञान ध्यान, गुरु बिना क्यों पावै ।
वार पार, पार वार, दुस्तर तिर आवै हो ॥
ज्योति जुगति बाट घाट, लै समाधि ध्यावै ।
परम नूर परम तेज, दादू दिखलावै हो ॥
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@सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र ~ !! श्री गुरुभ्यो नमः !!
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"धन्य गुरु ! धन्य - धन्य गुरुप्रम्पारा !"
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हे ब्राह्मण देव ! स्वयंभू ब्रह्मा से शिष्यपरम्परा में बारहवीं पीढ़ी में हुए "दध्यङ् आथर्वण" । इन्हीं महर्षि ने भगवान श्री वासुदेव श्रीकृष्ण को भगवद्गीता का उपदेश किया था ! जिसे श्री वासुदेव श्रीकृष्ण ने विस्तार से अपने प्रिये सखा - अर्जुन को महाभारत की युद्धभूमि में सुनाया था ! वे बड़े सामर्थ्यवान् थे । जब गुरु शिष्य को ज्ञान देता है तब गुरु शिष्य से कहता है कि इसकी परम्परा लुप्त न होने देना, आगे यह परम्परा चलती रहे ।
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दध्यङ् आथर्वण महर्षि ने परम्परा को चलाने के लिए अनेक शिष्यों को कर्म का उपदेश दिया, भिन्न - भिन्न कर्म कैसे किये जाते हैं इसका उपदेश दिया । उनके अनेक शिष्य हो गये । अनेक शिष्यों में भगवान् श्री सूर्यदेव के पुत्र भगवान् श्री अश्विनी कुमार भी उनके शिष्य थे । अश्विनीकुमार बड़े बुद्धिमान थे। गुरु जी ने कर्मकाण्ड का तो सारा विस्तार बताया पर उपनिषदों का कोई तात्पर्य नहीं बताया । अधिकतर शिष्य तो गुरुजी ने जितना पढ़ाया उतना पढ़े और चल दिये । किन्तु विचारशील को अधूरा ज्ञान संतोष नहीं देता ।
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महर्षि दध्यङ् आर्थवण लोगों को सब प्रकार के कर्मोँ का पूर्ण उपदेश दे रहे थे, उपनिषद् - काण्ड या ज्ञान - काण्ड को छोड़ देते थे । भगवान् श्री अश्विनीकुमार बड़े ही समझदार थे । आजकल की चालिस प्रतिशत अंको से उतीर्ण होने की प्रक्रिया विवेकी को नहीं जँचती । जिस साठ प्रतिशत को छात्र ने नहीं जाना उसका वह जीवन में कैसे उपयोग करेगा ? भगवान् श्री अश्विनीकुमार जी साठ प्रतिशत वाले तो थे नहीं । उन्होंने कहा, "गुरुजी, यह बाकी का ज्ञान आपने क्यों नहीं पढ़ाया ?
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महर्षि दध्यङ् आथर्वण ने कहा - बाकी परमात्मा का ज्ञान है, बिना योग्यता के यह ज्ञान नहीं दिया जा सकता । जिसे कामना है वह कर्म का अधिकारी है, और जो कामना - रहित है वह ज्ञान का अधिकारी है । कामना वाले को यदि ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया जाता है तो जैसे गलत समय के अन्दर बादल आयेँ और बरसा दें तो व्यर्थ हो जाता है, खेती के काम तो कुछ आयेगा नहीं, ठीक इसी प्रकार जब जोती हुई, जमीन तैयार नहीं है तब तक उपनिषद् को समझायेंगे तो उसका फल कुछ मिलना नहीं है, निष्फल हो जायेगा ।
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जिसके हृदय के अन्दर संसार के पदार्थोँ के प्रति राग का तीव्र सूर्य उदित है, वहाँ जब ज्ञान का उपदेश दिया जाता है तब उससे शोक - मोह हटेगा नहीं, सुख - दुःख हटेगा नहीं क्योंकि कामना ग्रस्त है । उसे कामना की पूर्ति चाहिए । कहेगा कि "लोग कहते हैं कि उपनिषद् ज्ञान से शोक - मोह से निवृत होगा, पर शोक - मोह से निवृत्त हुआ नहीं ।" अतः उसके प्रति अनास्था उत्पन्न हो जायेगी, अनादर उत्पन्न हो जायेगा ।
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उसको उस सुख - दुःख रहित अवस्था की प्राप्ति की इच्छा ही नहीं है, मुमुक्षा नहीं है, इस सुख - दुःख के बन्धन से छूटना ही नहीं चाहता, वह चाहता है कि संसार से दुःख तो हटे पर संसार का सुख बना रहे; इसलिये इस बात को समझने को तैयार नहीं कि एक सिक्के का एक तरफ का हिस्सा सुख है तो दूसरी तरफ का हिस्सा दुःख है । वह चाहता है कि एक ही तरफ का हिस्सा हो ।
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कोई एक मांसाहारी व्यक्ति था । उसके यहाँ एक मुर्गी थी । घर में कुछ धन की कमी थी । उस दिन मांस नहीं मिला तो उसने अपनी घरवाली से कहा, "अपने यहाँ मुर्गी है, उसी को बना ले । "उसने कहा, "इस मुर्गी के अंडों से बच्चों का रोज गुजारा होता है । इसको मार डालूँ तो बच्चों का क्या होगा !" उसने कहा, "ऐसा कर, मुर्गी के आधे हिस्से को पका ले । पीछे का जो अंडा देने वाला है, वह रख ले ।"
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जैसे यह असम्भ है क्योंकि अगला जायेगा तो पिछला हिस्सा भी गया समझें, इसी प्रकार अगर आत्यन्तिक दुःख की निवृत्ति होगी तो विषय - सुख भी गया हुआ समझें ! यदि विषय सुख चाहते हैं तो उसके साथ आने वाला दुःख भी भोगना पड़ेगा । मोटी भाषा में, यदि चोरी का पैसा कमायेंगे तो किसी इनकमटैक्स ऑफिसर को देखते ही सीने में घबराहट होगी । न हो - यह कैसे हो सकता है !
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इसलिये महर्षि दध्यङ् आथर्वण ने कहा "तुमको या किसी दूसरे को इसका उपदेश नहीं दे रहा हूँ, इसका कारण है इस समय उपदेश दिया हुआ सब व्यर्थ हो जायेगा । तुम्हारी उसपर से आदर दृष्टि भी चली जायेगी । इच्छा न होने के कारण तुम उसको ग्रहण करोगे नहीं । गाँव में कई बार ऐसा होता है । लोगों ने सुन रखा है कि जो आत्मवेत्ता होता है वह सर्वज्ञ होता है ।
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महात्मा के पास आते हैं। कहते हैं, "महाराज, मेरी भैंस खो गयी । आप तो सब कुछ जानते है । कहाँ मिलेगी, बता दीजिये ।" वे समझते हैं कि सर्वज्ञता का अर्थ है कि भैंस कहाँ है यह उसको बता सके । उसको कहेंगे कि सर्वज्ञता का मतलब यह नहीं है; तो वह कहेगा कि आपकी सर्वज्ञता बेकार है ! जब भैंस नहीं बता सकते तो क्या जाना ! अश्विनीकुमार इस बात को समझ गये ।
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हे विद्वन ! कालान्तर में महर्षि दध्यङ् आथर्वण घर छोड़कर कहीं आश्रम बना कर रहने लगे । कर्मकाण्डादि सब छोड़ दिया । जो लोग आते, उनकी कोई कामना हो तो कामनापूर्ति का साधन बतला दें, साथ में यह भी बता दें कि "तुम्हारी कामना तो पूरी होगी पर साथ में इसका यह बुरा नतीजा होगा । ज्योतिष्टोम करोगे तो स्वर्ग जाओगे । स्वर्ग सुख की प्राप्ति होगी, पर एक दिन स्वर्ग से गिरना पड़ेगा । गिरकर सत्त्वगुण के कारण किसी ब्राह्मण के घर पैदा होगे, लेकिन गर्भ में तो रहना पड़ेगा ।
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अतः अन्त में वे दुःख देने वाली चीजें हैं । कोई राजा आता था शत्रु राजा को समाप्त करने का उपाय जानने के लिए, उसको कहते थे "श्येन यज्ञ आदि अभिचार मत करो । शत्रु तो मर जायेगा पर इसके कारण आगे तुमको नरक में भी जाना पड़ेगा ।" इस प्रकार जो कामना से ग्रस्त होता था, उसको उपाय बतला देते थे पर उसका अन्तिम नतीजा भी बता देते थे ।
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साथ में यह भी बताते थे कि "यदि तुम बिना कामना के दानादि क्रिया करोगे तो चित्त शुद्ध होकर परमात्मा की प्राप्ति हो जायेगी जिसमें सुख ही है, दुःख नहीं ।" कोई उनकी बात मान लेता था तो उसकी चित्त शुद्धि होने पर तत्त्वज्ञान का उपदेश देते थे । अन्यथा शान्ति से बैठकर निरन्तर आनन्द का अनुभव करते थे ।
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नारायण ! एक बार देवराज इन्द्र आये । देवराज ने सुन रखा था कि वे ब्रह्मज्ञान का उपदेश देने में कुशल हैं और ब्रह्मज्ञान से सब समस्यायें हल हो जाती है । आकर उन्होंने महर्षि आथर्वण से कहा कि "मुझे ब्रह्मज्ञान का उपदेश दो ।" महर्षि दध्यङ् आथर्वण समझ गए कि यह उपदेश का अधिकारी तो है नहीं, कामना से भरकर राक्षसों को विफल करने के लिए यह विद्या ग्रहण करना चाहता है जिससे राक्षसों को हरा सके ।
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पर राजा की आज्ञा न मानना ठीक नहीं है। सोचा अगर कहूँगा कि तू इसका अधिकारी नहीं है, तो गुस्सा हो जायेगा अतः अनधिकारी होते हुए भी राजाज्ञा मानकर इसको उपदेश देना ही ठीक है । ब्रह्मविद्या का उपदेश देने के लिए उन्होंने वैराग्य का प्रकरण प्रारम्भ किया । उसमें उन्होंने इन्द्रपद कुत्ते के पेशाब जैसा तुच्छ है यह बताया । देवेन्द्र को बड़ा गुस्सा आया, "मैं सौ अश्वमेध यज्ञ करके यहाँ पहुँचा हूँ और यह ऐसे कहता है । यह कोई राक्षसों का एजेन्ट होगा जो हम देवताओं के खिलाफ बात कर रहा है ! परन्तु इसने खाली मुँह से कहा है और मैं इसको मार दूँ तो यह बड़ी खराब बात होगी ।"
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इसलिये उसको कह दिया, "बस - बस, रहने दे । अब आगे बोलने की जरूरत नहीं है । भविष्य में अगर तुमने यह विद्या किसी को दी तो मैं तुम्हारा सिर अलग कर दूँगा ।" इन्द्र ने सोचा कि "यदि यह उपदेश नहीं देगा, तो वैसे भी कोई नुकसान नहीं और देगा तो मेरी आज्ञा न मानने से मैं इसको दण्ड दूँगा । तब लोकापवाद का भागी नहीं बनूँगा ।
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हे विप्र वर्य ! महर्षि आथर्वण बिना किसी को उपदेश देते हुए आनन्द पूर्वक रहने लगे । सोचने लगे, चलो अच्छा ही हो गया । लोग आते थे, उनको तरह तरह की बाते बतानी पड़ती थी । किसी को कुछ बताओ, किसी को कुछ बताओ । ये सारी मुसीबते इन्द्र ने दूर कर दीं । अब मैं निरन्तर अपने आनन्दस्वरूप में स्थिर रहूँगा । जो कोई आता था, उसको कहते थे "इन्द्र ने बताने से मना कर दिया है । मुझसे कुछ नहीं पूछो ।"
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समय बीत गया । इसी बीच अश्विनी - कुमारों को वैराग्य की प्राप्ति हो गयी । आकर कहा "गुरु जी, आपने कहा था कि अधिकार जब हो जायेगा तब उपदेश देंगे। अब उपदेश दीजिए ।" महर्षि आथर्वण ने सोचा - कहा हुआ वचन तो है । कही हुई बात को कभी भी असत्य नहीं करना चाहिए । परिस्थिति बदल गयी तो प्रतिज्ञा छोड़ दे यह ठीक नहीं । ऐसी भयंकर स्थिति आ गयी पर सत्य का पालन करना था ।
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उन्होंने कहा, "हमने तुमसे कहा था अतः उपदेश तो हम तुम्हें देंगे । लेकिन उपदेश पूरा नहीं कर पाऊँगा ।" अश्विनीकुमार बड़े कुशल वैद्य हैं । उन्होंने कहा "हम आपके सिर का "ट्रान्सप्लांट" कर देगें । आपका सिर काटकर किसी दूसरे का सिर लगा देंगे । उस सिर से आप उपदेश देना । इन्द्र जब काटेगा तो वह सिर काटेगा । आपके धड़ को बचाकर रखेंगे । उस सिर के कट जाने पर पुनः आपके सिर को धड़ से जोड़ देंगे ।"
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यह इतना भीषण है फिर भी सत्य का रक्षण करना था अतः उन्होंने ऐसा ही किया । उपदेश दिया गया । आत्मनिष्ठा होने पर ऐसी स्थिरता हो जाती है । धन्य है गुरु परम्परा । प्रणाम है इस परम्परा को । हे ब्राह्मण देव ! आपकी वैदिक गुरुपरंपरा अक्षुण रहे ! यही परम गुरु से प्रार्थना है !
नारायण स्मृतिः

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