मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

*= तृतीय बिन्दु = पिता का धन परमार्थ में लगाना =*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ तृतीय विन्दु ~*
*= पिता का धन परमार्थ में लगाना =*
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लुटेरों की घटना के पश्चात् दादूजी अति निर्भय हो गये थे । कारण ? प्रभु भरोसा का फल प्रत्यक्ष देख लिया था । फिर तो दादूजी की वृत्ति विशेष कर के आंतर ही रहने लगी थी । उस अन्तः स्थिति से उनको ब्रह्म प्रकाश भी भासने लगा था । फिर वे तो सांसारिक बातों को भूल कर दिन - रात निदिध्यासन में ही लगे रहते थे ।
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चींटी, हाथी, लोहा, स्वर्ण, निन्दा, स्तुति को सामान ही समझने लगे थे सबमें भगवान् का ही दर्शन करते थे और परोपकार परायण हो गये थे । सब पर दया ही करते थे, अहित तो किसी का भी नहीं चाहते थे । इस प्रकार एकादश वर्ष की आयु में वृद्ध भगवान् के दर्शन के पश्चात् सात वर्ष तक घर में रहे । कहा भी है -
सात वर्ष घर में रहे, करी हरि की सेव ।
अष्टादश ही वर्ष में, मिले निरंजन देव ॥१॥
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१८ वर्ष की आयु में पुनः निरंजन देव प्रभु ने दर्शन दिया और कहा - "अब घर को त्याग कर राजस्थान प्रान्त में जाओ और मैंने जो तुम को निर्गुण भक्ति की पद्धति बताई है, उसका प्रचार द्वारा विस्तार करो । प्रतिकूल परस्थिति में भय मत करना, मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ । तुम्हारे विपरीत कुछ भी नहीं होने दूंगा, सर्व स्थानों में सहायता करता रहूँगा ।"
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कहा भी है - "वंदत बुलात चरायो चर हूं"(आत्म बिहारी) अर्थात् तुम्हारे बुलाने पर बोलूंगा । जिमाने पर जिमूंगा । और जो भी इच्छा होगी उसको पूर्ण करूंगा । तुम सर्वथा निर्भय रहना । भगवान् की आज्ञा तो सर्वथा मानी ही थी ।
(क्रमशः)

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