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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ तृतीय विन्दु ~*
*= लुटेरों का मिलना =*
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फिर एक दिन मार्ग में दादूजी को कुछ लुटेरों ने घेर लिया । और बोले - तुम्हारे पास जो कुछ है सो सब दे दो, नहीं दोगे तो अब जीवित नहीं बचोगे ।
दादूजी ने कहा - आप लोग ऐसा काम क्यों करते हो ? इस से तो आप लोग दूसरों को महान् दुःख में डालते हो । आप लोग सोचो, आप को कोई लूटे तो आपको कितना दुःख होगा ?
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लुटेरों ने कहा - हमारी जीविका यह ही है और हमको लूटने की शक्ति है ही किस में ?
दादूजी ने कहा - इस प्रकार तो आप लोग अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हो ।
लुटेरों ने पूछा - कैसे ?
दादूजी ने कहा - गरीबों को भी लूट लेते हो ।
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लुटेरे बोले - हम तो गरीब अमीर की परीक्षा नहीं करते, जिसके पास जो होता है वही लूट लेते हैं ।
हमने तुम्हारी बातें सुन ली हैं । अब यदि तुम बचना चाहते हो तो अपनी शक्ति दिखाओ । और नहीं दिखाई तो अभी तुम को भी लूटेंगे ।
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दादूजी ने कहा - हमारी शक्ति तो परमात्मा है, वे सदा हमारी रक्षा करते हैं । इतना कहते ही दादूजी उन को एक धनुषधारी वीर के रूप में भासने लगे । तब उन्होंने उस वीर पर अनन्त बाण चलाये किन्तु एक भी बाण उसके नहीं लगा । फिर उस वीर ने एक बाण एक सूखे वृक्ष के पेड़ में मारा । वह पेड़ के भीतर से बाहर जाता दिखाई दिया । फिर वह वीर अनन्तरूप में भासने लगा और सब ओर से लुटेरों को घेर लिया अर्थात् उस एक वीर से अकस्मात् एक सेना वहां प्रकट हो गई ।
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सैनकों ने उनको ललकारा और दादूजी एक ओर खड़े दिखाई दिये तब वे दादूजी के शरण में आकर चरणों में पड़ गये और प्रार्थना करने लगे - आप हमारी रक्षा कीजिये । अब हम लूटने का काम सदा के लिये छोड़ कर आपके उपदेशानुसार ही चलेंगे । तब वह सेना जो अकस्मात् योगिराज दादूजी की रक्षार्थ भगवान् की योगमाया से प्रकट हुई थी, तत्काल अन्तर्धान हो गई । फिर दादूजी ने उन लुटेरों को निर्गुण भक्ति का उपदेश किया ।
इस घटना का परिचय जनगोपालजी ने इस प्रकार दिया है -
त्राहि त्राहि तब करत पुकारा,
बखसो स्वामी प्राण हमारा ।
तब स्वामी तिन करी सहाई,
हरि की भक्ति हृदय उपजाई ॥५८॥
(विश्राम १)
(क्रमशः)

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