#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*(श्री दादूवाणी ~ पद ३३९, ४१५)*
साभार अंग्रेजी अनुवाद : @James Bean ~
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३३९ - **मन** । ललित ताल
मन चँचल मेरो कह्यो न मानै,
दशों दिशा दौरावै रे ।
आवत जात बार नहिं लागै,
बहुत भाँति बौरावै रे ॥टेक॥
बेर बेर बरजत या मन को,
किंचित सीख न मानैं रे ।
ऐसे निकस जाइ या तन तैं,
जैसे जीव न जाने रे ॥१॥
कोटिक जतन करत या मन को,
निश्चल निमष न होई रे ।
चँचल चपल चहूं दिशि भरमै,
कहा करै जन कोई रे ॥२॥
सदा सोच रहत घट भीतर,
मन थिर कैसे कीजै रे ।
सहजैं सहज साधु की संगति,
दादू हरि भज लीजै रे ॥३॥
मन का स्वभाव और उसके जय करने का साधारण साधन बता रहे हैं चँचल मन हमारा कहा नहीं मानता और अपनी इच्छा पूर्ति के लिए हमें दशों दिशाओं में दौड़ाता है । उसको आते जाते कुछ भी देर नहीं लगती । यह हमें बहुत प्रकार से बहकाता है ।
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इसे विषयों में जाने से बारँबार रोकते हैं किन्तु यह किंचित् मात्र भी शिक्षा नहीं मानता । इस शरीर से ऐसे ढँग से निकलता है जिस ढँग से जाने पर जीव इसके जाने को जान भी न सके ।
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इस मन को स्थिर करने के लिए कोटि यत्न करते हैं, किन्तु यह एक निमेष मात्र भी निश्चल नहीं रहता । यह अति चँचल और चालाक है, दशों दिशाओं में भ्रमण करता है । इसको रोकने के लिए भक्त जन यत्न करें तो भी क्या करें ?
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अन्त:करण में सदा यही विचार रहता है कि मन को स्थिर कैसे करें ? अन्त में सद्गुरु और सँत वचनों द्वारा यही निश्चय होता है कि सँतों की संगति और भजन करते रहने से शनै: शनै: इसे स्थिर कर लिया जायगा ।
Repeating the Name of the Beloved My Mind is Attached to God
Man cancal mero kahyau na manai
The restless mind listens not to my instructions; it hauls me in all the ten directions.
In no time it comes and goes; in various ways it makes me insane.
Again and again I forbid this mind, but it listens not to the slightest instruction.
Millions of efforts are employed on this mind, but it remains not steady for a moment.
This restless and fickle one wanders in all directions, what can anyone do to it?
O am worried always within as to how to make this mind steady.
Be dedicated to God, remain in the company of the Saint, and with ease it will be made steady, O Dadu.
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४१५ - धीमा ताल
लाग रह्यो मन राम सौं,
अब अनतैं नहिं जाये रे ।
अचला सौं थिर ह्वै रह्यो,
सकै न चित्त डुलाये रे ॥टेक॥
ज्यों फुनिंग१ चँदन रहे,
परिमल२ रहे लुभावे रे ।
त्यों मन मेरा राम सौं,
अब की बेर अघाये रे ॥१॥
भंवर न छाड़ै बास को,
कवल हि रह्यो बंधाये रे ।
त्यों मन मेरा राम सौं,
वेध रह्यो चित लाइ रे ॥२॥
जल बिन मीन न जीवई,
विछुरत ही मर जाये रे ।
त्यों मन मेरा राम सौं,
ऐसी प्रीति बनाये रे ॥३॥
ज्यों चातक जल को रटै,
पिव पिव करत बिहाये रे ।
त्यों मन मेरा राम सौं,
जन दादू हेत लगावे रे ॥४॥
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हमारा मन निरंजन राम के स्वरूप चिन्तन में लगा है, अब अन्य में नहीं जाता । अचल ब्रह्म में स्थिर हो रहा है, इसी से चित्त चँचल नहीं हो सकता ।
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जैसे सर्प१ सुगँध२ के लोभ से चँदन पर रहता है, वैसे ही मेरा मन परमानन्द के लोभ से राम के स्वरूप चिन्तन में लगा रहता है । इसी से इस वर्तमान जन्म के समय में हम तृप्त हुये हैं ।
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जैसे भ्रमर कमल - गँध के लिए कमल को नहीं छोड़ता, सायँकाल सूर्य छिपने पर उसी में बन्द हो जाता है, वैसे ही मेरा मन राम के स्वरूप - चिन्तन से विद्ध होकर उसी में लगा रहता है ।
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जैसे जल बिना मच्छी जीवित नहीं रह सकती, बिछुड़ते ही मर जाती है, वैसे ही मेरे मन ने राम से मीन की - सी प्रीति कर ली है, उनको छोड़ कर नहीं रह सकता ।
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जैसे चातक पक्षी स्वाति जल को रटता रहता है, उसका समय पीव - पीव करते ही जाता है, हे जन ! वैसे ही मेरा मन राम से स्नेह लगावे रहता है ।
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Lagi rahyau man Ram sau
The mind is attached to God; now it goes not anywhere else.
Being established in the Immovable, it has become motionless; it can shake no more.
As the snake resting on the sandal wood tree is captivated by its fragrance, so is my mind contented this time with God.
As the bee forsakes not the fragrance and is bound within the lotus, my mind, likewise, is pierced by God's love and is absorbed in Him.
As the fish survives not without water and dies as soon as it is separated, likewise has my mind developed endearment for God.
As the rain-bird cries again and again for water, and passes its time repeating the name of its beloved, so is my mind intently attached to God, O man, sayeth Dadu.
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Sant Dadu Dayal
(Encyclopaedia of Saints of India, Volume 25: Sant Dadu Dayal)
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