बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

= १७६ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
मैं मेरे में हेरा, 
मध्य मांहिं पीव नेरा ॥टेक॥
जहाँ अगम अनूप अवासा, 
तहँ महापुरुष का वासा ।
तहँ जानेगा जन कोई, 
हरि मांहि समाना सोई ॥१॥
अखंड ज्योति जहँ जागै, 
तहँ राम नाम ल्यौ लागै ।
तहँ राम रहै भरपूरा, 
हरि संग रहै नहिं दूरा ॥२॥
तिरवेणी तट तीरा, 
तहँ अमर अमोलक हीरा ।
उस हीरे सौं मन लागा, 
तब भरम गया भय भागा ॥३॥
दादू देख हरि पावा, 
हरि सहजैं संग लखावा ।
पूरण परम निधाना, 
निज निरखत हौं भगवाना ॥४॥
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साभार : @Mahamandleshwar Swami Arjun Das ~
आविष्कार! आविष्कार! आविष्कार! कितने आविष्कार रोज हो रहे हैं!
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लेकिन जीवन संताप से संताप बनता जाता है। नरक को समझने के लिए अब किन्हीं कल्पनाओं की आवश्यकता नहीं। इस जगत को बतला कर कह देना ही काफी है : 'नरक ऐसा होता है।' और इसके पीछे कारण क्या है? कारण है कि मनुष्य स्वयं आविष्कृत होने से रह गया है।
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मैं देख रहा हूं कि मनुष्य के लिए अंतरिक्ष के द्वार खुल गये हैं और उनकी आकाश की सुदूर गामी यात्रा की तैयारी भी पूरी हो चुकी है। लेकिन, क्या आश्चर्यजनक नहीं है कि स्वयं के अंतस के द्वार ही उसके लिए बंद हो गये हैं।
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उस यात्रा का ख्याल ही उसे विस्मरण हो गया है, जो कि वह अपने भीतर कर सकता है। मैं पूछता हूं कि यह पाना है या कि खोना? मनुष्य ने यदि स्वयं को खोकर शेष सब कुछ भी पा लिया, तो उसका क्या अर्थ है और क्या मूल्य है! समग्र ब्रह्मांण्ड की विजय भी उस छोटे से बिंदु को खोने का घाव नहीं भर सकती है, जो कि वह स्वयं है, जो कि उसकी निज सत्ता का केंद्र है।
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कोई पूछता था, ''मैं क्या करूं और क्या पाऊं?'' मैंने कहा : ''स्वयं को पाओ और जो भी करो, ध्यान रखो कि वह स्वयं के पाने में सहयोगी बने। स्वयं से जो दूर ले जावे, वही है, अधर्म और जो स्वयं में ले आवे, उसे ही मैंने धर्म जाना है।''
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स्वयं के भीतर प्रकाश की छोटी-सी ज्योति भी हो, तो सारे संसार का अंधेरा पराजित हो जाता है। और, यदि स्वयं के केंद्र पर अंधकार हो, तो बाह्याकाश के करोड़ों सूर्य भी उसे नहीं मिटा सकते हैं।.......
दादूराम सत्यराम.......दादूराम सत्यराम
— at Shri Dadudwara, Bagar.

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