#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू साधन सब किया, जब उनमन लागा मन ।
दादू सुस्थिर आत्मा, यों जुग जुग जीवैं जन ॥
रहते सेती लाग रहु, तो अजरावर होइ ।
दादू देख विचार कर, जुदा न जीवै कोइ ॥
जेती करणी काल की, तेती परिहर प्राण ।
दादू आतमराम सौं, जे तूं खरा सुजाण ॥
विष अमृत घट में बसै, विरला जानै कोइ ।
जिन विष खाया ते मुये, अमर अमी सौं होइ ॥
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@Ramjibhai Jotaniya via @आदित्य श्रीराधेकृष्ण सोऽहं ~
अजामिल कथा - एक विवेचन ~ कथा का संक्षिप्त स्वरूप
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कान्यकुब्ज नगर में अजामिल नाम का एक दासी - पति ब्राह्मण रहता था । दासी(जिसे कुलटा वेश्या भी कहा गया है) के संसर्ग से दूषित होने के कारण ही उसका उच्च शील - सदाचार नष्ट हो गया था और वह अत्यन्त निन्दनीय वृत्ति का आश्रय लेकर अपना और अपने कुटुम्ब का पालन करता था ।
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अजामिल के दस पुत्र थे, जिनमें सबसे छोटे पुत्र का नाम था - नारायण । वृद्ध अजामिल ने अत्यन्त मोह के कारण अपना सम्पूर्ण हृदय पुत्र नारायण को सौंप दिया था । नारायण में अतिशय आसक्ति के कारण वह मूढ हो गया था और उसे इस बात का पता ही न चला कि मृत्यु मेरे सिर पर आ पहुंची है । एक दिन अजामिल पुत्र नारायण के सम्बन्ध में ही सोच - विचार कर रहा था कि उसे(अजामिल को) लेने तीन यमदूत पहुंच गए ।
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भयानक स्वरूप वाले यमदूतों को देखकर अजामिल अत्यन्त व्याकुल हो गया और उसने ऊंचे स्वर से पास ही खेल रहे पुत्र नारायण को पुकारा । नारायण का नाम सुनकर भगवान् के पार्षदों ने सोचा कि यह हमारे प्रभु का कीर्तन कर रहा है, इसलिए वे तुरन्त अजामिल के निकट पहुंचे । उन्होंने अजामिल के अन्तर्हृदय का कर्षण करने वाले यमदूतों को कर्षण करने से बलपूर्वक रोक दिया ।
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यमदूतों ने अपने कृत्य के औचित्य का समर्थन करने के लिए विष्णु - दूतों के समक्ष कर्म - फल - नियम का तथा अजामिल की कुलटा वेश्या पर आसक्ति एवं दुराचारता का विस्तार से निरूपण किया । यमदूतों के कथन के प्रत्युत्तर में विष्णुदूतों ने भी नारायण के नाम - स्मरण रूपी भागवत - धर्म का निरूपण करते हुए अजामिल को यमदूतों के पाश से छुडा दिया ।
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यमदूतों के पाश से छूटकर स्वस्थ एवं निर्भय हुए अजामिल ने जैसे ही विष्णुदूतों से कुछ कहना चाहा, वैसे ही वे सहसा अन्तर्धान हो गए । यमदूतों द्वारा कहे गए त्रिगुणात्मिका प्रकृति से सम्बन्ध रखने वाले प्रकृति धर्म तथा विष्णुदूतों द्वारा कहे गए भागवत धर्म को सुन कर अजामिल का आत्म - चिन्तन जाग्रत हो गया और उसने मोह का परित्याग कर हर - द्वार में प्रवेश किया । आत्म - जागरण के द्वारा अन्त में अजामिल ने अपने हृदय को परम ब्रह्म से जोडकर वैकुण्ठधाम को प्राप्त किया ।
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कथा का तात्पर्य ~
अजामिल कथा एक अवान्तर कथा है और इसका अवतरण राजा परीक्षित के इस प्रश्न के उत्तर के रूप में हुआ है कि मनुष्य किस उपाय का अनुष्ठान करके नरक - यातनाओं अर्थात् दु:खों से मुक्त रह सकता है ।
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कथा इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथ्य को निरूपित करती है कि यद्यपि दु:खों से आत्यन्तिक मुक्ति का उपाय आत्म - जागरण द्वारा आत्म - स्वरूप में अवस्थिति ही है, तथापि यदि मनुष्य देह - चेतना में स्थित है अर्थात् देह को ही अपना वास्तविक स्वरूप समझता है, तब वह भगवत्परायणता रूप एक विशिष्ट उपाय का आश्रय लेकर आत्म - जागरण द्वारा दु:खों से मुक्ति रूप अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है ।
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कथा संकेत करती है कि सबसे पहले मनुष्य यम - नियम आदि ९ गुणों को अपने व्यक्तित्व में प्रयत्नपूर्वक धारण करे । ये ९ गुण महर्षि पतञ्जलि द्वारा निर्दिष्ट सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, स्वाध्याय तथा ईश्वर - प्रणिधान भी हो सकते हैं अथवा अजामिल - कथा में ही निर्दिष्ट तप, ब्रह्मचर्य, शम, दम, त्याग, सत्य, शौच, यम तथा नियम (६.१.१३) भी हो सकते हैं ।
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इन यम - नियमों अथवा ९ गुणों को अपने व्यक्तित्व में प्रयत्नपूर्वक धारण करना जामि(यम - यामि) कहलाता है । परन्तु शनैः - शनैः जब मनुष्य इन यम - नियमों को आत्मसात् कर ले अर्थात् उसका प्रयत्न समाप्त होकर ये गुण मनुष्य में स्वाभाविक रूप से ओतप्रोत हो जाएं तब वह स्थिति ही अजामि कहलाती है । इस अजामि स्थिति में स्थित मनुष्य की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विशिष्टता है - उसका भगवत्परायण होना ।
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भगवत्परायणता का अर्थ है - अनन्त नाम - रूपों में व्याप्त भगवत्सत्ता को उसकी समग्रता में स्वीकार कर लेना अर्थात् इस दृश्यमान् नाना रूपात्मक जगत् में एक ही परमात्मसत्ता को विद्यमान समझते हुए सर्वत्र उसके दर्शन करना तथा प्रत्येक नाम, रूप, परिस्थिति अथवा घटना के प्रति स्वीकार भाव रखना ।
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इस भगवत्परायणता से मनुष्य को यह लाभ होता है कि जीवन में किसी भी समय दैहिक, दैविक अथवा भौतिक तापों(दु:खों) के उपस्थित हो जाने पर वह कुछ क्षणों के लिए भयभीत होकर व्याकुल तो अवश्य होता है, परन्तु उसकी भगवत्परायणता अर्थात् समग्र अस्तित्व के प्रति उसकी स्वीकार्यता अतिशीघ्र उसमें शक्ति, शान्ति, सुख तथा पवित्रता आदि भावों का प्रस्फुरण कर देती है जिसके फलस्वरूप मनुष्य आगत दु:खों के ताप से बच जाता है । इसके साथ ही दु:खों का ताप और शान्ति का आगमन - ये दोनों समवेत रूप में अनुभूत हुई स्थितियां मनुष्य को दो प्रकार का ज्ञान भी देती हैं ।
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प्रथम प्रकार का ज्ञान - दु:खों के द्वारा मनुष्य व्यष्टि तथा समष्टि प्रकृति में क्रियाशील नियमों को समझने में समर्थ होता है । उसे ज्ञात हो जाता है कि जब तक मनुष्य देह - चेतना में स्थित है, अर्थात् स्वयं को देह मानकर ही चल रहा है, तब तक सभी कर्मों को कर्त्ता - भोक्ता भाव से करने के कारण वे कर्म निश्चित् रूप से फल लाएंगे तथा उस कर्म - फल नियम से बंधे होने के कारण मनुष्य के सामने दुःख - सुख रूप फल निश्चित् रूप से आएंगे ही । अब उसे यह भी ज्ञात होता है कि जब तक मनुष्य देह रूपी पृथ्वी से बंधा रहेगा, तब तक यह देह(मन - बुद्धि - चित्त) रूपी पृथ्वी अपनी गुरुत्वाकर्षण शक्ति आसक्ति, मोह आदि के बल पर मनुष्य को स्वार्थ, अहंकार आदि के रूप में नीचे की ओर खींचती ही रहेगी । ऊपर उठने के लिए मनुष्य को इस देह रूपी पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल से बाहर आकर आत्म - चेतना में स्थित होना अनिवार्य होगा ।
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द्वितीय प्रकार का ज्ञान - दु:खों के साथ ही प्रादुर्भूत हुए शान्ति - सुख आदि भावों के प्रस्फुरण से मनुष्य इस आध्यात्मिक नियम को भी समझने में समर्थ होता है कि भगवत्परायणता अर्थात् समग्र अस्तित्व के प्रति स्वीकार एवं समर्पण भाव में ही शान्ति, सुख, पवित्रता आदि निहित हैं ।
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कथा यह भी संकेत करती है कि भगवत्परायण होने के कारण मनुष्य को दुःख के समय जिस शान्ति - सुख का अनुभव होता है - वह यद्यपि तात्कालिक ही होता है, परन्तु उपर्युक्त वर्णित देह(प्रकृति) तथा आत्मा( पुरुष) के नियमों का ज्ञान हो जाने से मनुष्य की अज्ञान - निद्रा टूटती है और वह इस चिन्तन की ओर प्रवृत्त होता है कि मैं वास्तव में हूं कौन ?
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मैं क्यों अभी तक स्वयं को शरीर मात्र समझकर जीवन के अमूल्य क्षणों का दुरुपयोग करता रहा । यही आत्म - जागरण है जो मनुष्य को शीघ्र ही परमात्म - सत्ता से जोडकर वैकुण्ठ अर्थात् कुण्ठा रहित स्थिति की प्राप्ति करा देता है । अतः देहभाव में जीवन जीते हुए मनुष्य का यह प्रथम कर्तव्य है कि वह अजामि(यम - नियमों को आत्मसात् करके) होकर भगवत्परायण बने ।
कथा की प्रतीकात्मकता - कथा को सम्यक् रूप से हृदयंगम करने के लिए कतिपय प्रतीकों को समझ लेना उपयोगी होगा -
१- कथा का मुख्य पात्र है - अजामिल अजामि शब्द वेदों में प्रकट हुआ है । ऋग्वेद की ऋचा १०.१०.१० में कहा गया है - "आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि " अर्थात् हम उस उत्तर युग में प्रवेश करे जहां जामियों को अजामि बना लिया जाता है ।
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ऐसा प्रतीत होता है कि जामि शब्द यम/यामि से निष्पन्न हुआ है । यम/यामि का अभिप्राय दो प्रकार से लिया जा सकता है । पहले प्रकार में यम का अर्थ यम - नियम आदि गुणों के रूप में ग्रहण किया जा सकता है जिसका विवेचन हम °कथा के तात्पर्य° के अन्तर्गत कर चुके हैं ।
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दूसरे प्रकार में यम का अर्थ है - संयत करना, नियन्त्रित करना, वश में करना । अतः तदनुसार यम/यामि चेतना पर नियन्त्रण स्थापित करने की स्थिति है । इसके विपरीत अजामि वह स्थिति है जब चेतना पर नियन्त्रण स्थापित करने की आवश्यकता न पडे, सभी प्रक्रियाएं स्वाभाविक रूप से होने लगें । दोनों ही प्रकारों में एक ही तथ्य स्पष्ट होता है कि गुणात्मक दृष्टि से उच्च स्तर पर स्थित चेतना अजामि है । इस अजामि स्थिति का जो लालन - पालन करता है - वही भागवत पुराण में अजामिल नाम से कहा गया है ।
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२. कथा में कहा गया है कि अजामिल पहले एक शील, सदाचार युक्त ब्राह्मण था परन्तु बाद में दासी अर्थात् कुलटा वेश्या पर आसक्त होकर वह दुराचारी हो गया । इस कथन द्वारा सृष्टि सृजन के अन्तर्गत मनुष्य की जीवन यात्रा की ओर संकेत किया गया है । प्रत्येक मनुष्य अपनी जीवन - यात्रा की प्रारम्भिक स्थिति में शुद्ध एवं शान्त आत्म स्वरूप में स्थित था, परन्तु जन्मों - जन्मों की यात्रा के अन्तर्गत वह अपने शुद्ध एवं शान्त आत्मस्वरूप को भूलकर अशुद्ध - अशान्त देह - स्वरूप को प्राप्त हो गया ।
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ठीक उसी प्रकार जैसे यात्रा पर जाने के लिए जब मनुष्य अपनी यात्रा प्रारम्भ करता है, तब वह स्वयं भी तथा उसका वस्त्र भी स्वच्छ होता है परन्तु यात्रा के अन्तर्गत वह स्वयं तथा उसका वस्त्र मलिनता को धारण कर लेता है ।
प्रस्तुत कथा में सदाचारी शब्द से मनुष्य की आत्म - स्वरूप में स्थिति को तथा दुराचारी शब्द से उसकी देह - स्वरूप में स्थिति को इंगित किया गया है ।
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३. कथा में कहा गया है कि अजामिल ने अपनी कुलीन, नवयुवती पत्नी का परित्याग करके कुलटा वेश्या को पत्नी रूप में स्वीकार कर लिया । कुलीन, नवयुवती पत्नी आत्म - केन्द्रित विवेकयुक्त बुद्धि की तथा कुलटा वेश्या देह - केन्द्रित अविवेकी बुद्धि की प्रतीक है । मनुष्य जब अपने वास्तविक आत्म - स्वरूप को भूलकर देह को ही अपना स्वरूप मान लेता है, तब वह विवेकी बुद्धि का परित्याग करके अविवेकी बुद्धि से जुड जाता है ।
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४. कथा में कहा गया है कि अजामिल के दस पुत्र थे । उनमें सबसे छोटे पुत्र का नाम नारायण था । अजामिल नारायण के प्रति आसक्त था । पौराणिक साहित्य में "पुत्र" शब्द सर्वदा ही किसी न किसी गुण का प्रतिनिधित्व करता है । यहां भी ९ पुत्र तो अजामिल के यम - नियम आदि ९ गुणों का तथा नारायण नामक दसवां पुत्र उसके भगवत्परायणता(समग्र अस्तित्व के प्रति स्वीकार भाव ) नामक गुण का प्रतिनिधित्व करता है । गुणों से सम्पन्न हुए मनुष्य का भगवत्परायण हो जाना नारायण के कनिष्ठतम पुत्र होने की ही पुष्टि करता है । अजामिल की नारायण के प्रति आसक्ति उसकी भगवत्परायणता की अतिशयता अथवा पराकाष्ठा को इंगित करती है ।
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५. नारायण के प्रति अति आसक्त अजामिल को कथा में मूढ और अज्ञ कहा गया है । वास्तव में भगवत्सत्ता अर्थात् समग्र अस्तित्व के प्रति पूर्णतः समर्पित हुए हृदय वाला मनुष्य किसी भी प्रकार की उद्विग्नता से रहित पूर्णतः शान्त रहने के कारण बहिर्मुखी लोगों की दृष्टि में अज्ञ और मूढवत् ही प्रतीत होता है । इसलिए उपर्युक्त शब्दों का प्रयोग युक्तिसंगत ही है ।
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६. कथा में कहा गया है कि अजामिल को ले जाने के लिए तीन भयंकर यमदूत आए । उन्हें देखकर अजामिल ने व्याकुल होकर उच्च स्वर से पुत्र नारायण को पुकारा, जो कुछ ही दूरी पर खेल रहा था ।
तीन भयंकर यमदूत दैहिक, दैविक तथा भौतिक - तीन तापों अथवा दु:खों के प्रतीक हैं । इन दु:खों के आने पर अजामिल द्वारा पुत्र नारायण को पुकारने का अर्थ है - गुणी मनुष्य द्वारा अपनी ही उस भगवत्ता(भगवत् - परायणता) का स्मरण कर लेना जो उसी के हृदय के भीतर क्रीडा कर रही होती है अर्थात् विद्यमान होती है ।
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७. कथा में कहा गया है कि जैसे ही अजामिल ने पुत्र नारायण को पुकारा, वैसे ही विष्णु के दूत अजामिल के समीप वेगपूर्वक पहुंच गए और उन्होंने यमदूतों को अजामिल के हृदय का कर्षण करने से रोक दिया ।
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है - अजामिल द्वारा पुत्र नारायण को पुकारने का अर्थ है - यम - नियम आदि गुणों से युक्त मनुष्य के भगवत्परायण होने के कारण जीवन में उपस्थित हुई प्रत्येक घटना, परिस्थिति, व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति उसका स्वीकार भाव । मनुष्य तभी तक दुःख से दु:खित होता है जब तक वह सर्वात्मना उसे स्वीकार नहीं करता ।
जैसे ही वह अपने दुःख को पूर्ण हृदय से स्वीकार कर लेता है, वैसे ही तप्त हृदय में शक्ति, सुख तथा शान्ति आदि भावों का प्रस्फुटन होता है ।
उन भावों के प्रस्फुटन को ही यहां विष्णुदूत कहकर इंगित किया गया है । उन भावों के प्रस्फुटन से दुःख से उत्पन्न हुआ कर्षण समाप्त हो जाता है ।
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८. कथा में कहा गया है कि यमदूतों तथा विष्णुदूतों द्वारा कहे हुए धर्मों को सुनकर जैसे ही अजामिल ने कुछ स्वस्थ होकर विष्णुदूतों से कुछ कहना चाहा, विष्णुदूत अन्तर्धान हो गए । यमदूतों तथा विष्णुदूतों के धर्मों को हम "कथा के "तात्पर्य" स्पष्ट कर चुके हैं ।
विष्णुदूतों का अन्तर्धान होना इस तथ्य को इंगित करता है कि समग्र अस्तित्व के प्रति स्वीकार भाव होने से मनुष्य को अकस्मात् आए दुःख के समय उस दुःख को स्वीकार कर लेने से जिस सुख - शान्ति का अनुभव होता है, वह सुख - शान्ति यद्यपि तात्कालिक ही होती है और झलक मात्र होती है, परन्तु यह झलक मात्र ही मनुष्य को दुःख से उत्पन्न हुई अशान्ति एवं अस्थिरता से उबारकर शान्ति और स्थिरता प्रदान करके उसे स्वस्थ चिन्तन - आत्म चिन्तन की ओर प्रवृत्त कर देती है ।
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