शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

२०. साधु को अंग ~ १८

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*२०. साधु को अंग* 
*जैसैं आरसी कौ मैल काटत सिकलगर,* 
*मुख मैं न फेर कोऊ वहै वाकै पोत है ।* 
*जैसैं बैद नैंन मैं सलाका मेलि शुद्ध करै,* 
*पटल गयै तैं तहाँ ज्यौं की त्यौं ही जोत है ॥* 
*जैंसैं वायु बादर बखेरि कैं उड़ाइ देत,* 
*रवि तो अकास मांहि सदा ई उदोत है ।*
*सुन्दर कहत भ्रम छिन मैं बिलाइ जात,* 
*साधु ही कैं संग तैं स्वरूप ज्ञान होत है ॥१८॥* 
*सत्संग से स्वरूप ज्ञान* : जैसे दर्पण की स्वच्छता(सफाई) करने वाला कोई शिल्पी(सिकलीगर) दर्पण को स्वच्छ कर दे तो उस में मुख दिखायी देता है, यहाँ मुख में कोई परिवर्तन नहीं, अपितु दर्पणशुद्धि ही कारण है । 
जैसे कोई वैद्य शलाका से अञ्जन डाल कर नेत्रों को स्वच्छ कर देता है, तब नेत्रों में कोई परिवर्तन नहीं है, अपितु नेत्रों पर जो पटल(आवरण) आ गया था, उसका उस अंजन से दूर हो जाना ही कारण है । 
जैसे वायु से मेघों के उड़ जाने के सूर्य का प्रकाश पूर्ववत् दिखायी देने लगता है, यहाँ मेघों हट जाना ही कारण है; आकाशस्थ सूर्य की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं- क्षणमात्र में भ्रम के विलीन होने के बाद, सत्संग से आत्मस्वरूप का ज्ञान हो जाता है ॥१८॥
(क्रमशः)

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