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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१३४. काल चेतावनी । पंचम ताल ~
बटाऊ ! चलना आज कि काल ।
समझि न देखे कहा सुख सोवे,
रे मन राम संभाल ॥टेक॥
जैसे तरुवर वृक्ष बसेरा,
पंखी बैठे आइ ।
ऐसैं यहु सब हाट पसारा,
आप आपको जाइ ॥१॥
कोइ नहिं तेरा सजन संगाती,
जनि खोवे मन मूल ।
यहु संसार देखि जनि भूलै,
सब ही सैंबल फूल ॥२॥
तन नहिं तेरा धन नहिं तेरा,
कहा रह्यो इहि लाग ।
दादू हरि बिन क्यों सुख सोवे,
काहे न देखे जाग ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें काल से चेत करा रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! यह प्राणधारी तो बटाऊ के समान है, परन्तु अभी तक भी गुरु, शास्त्र के उपदेश को सुनकर परमेश्वर का विचार नहीं करता । हे प्राणी ! क्या अज्ञान रूप निद्रा में सो रहे हो ? अब तो अपने मन के द्वारा राम - नाम का स्मरण करो ।
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जैसे सायंकाल को वृक्षों के ऊपर पक्षी आकर बैठते हैं और प्रातःकाल होते ही उड़ जाते हैं, उनमें कोई किसी का साथी नहीं होता । जैसे बणिया सवेरे हाट मांडकर बैठता है और शाम को सब पसारा समेट लेता है । ऐसे ही यह सब माया का पसारा है । इसको देखकर क्या राजी होता है ? ये तो अपने - अपने कर्मों द्वारा सब जाने वाले हैं ।
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इनमें कोई भी तेरे से स्नेह करने वाला तथा रक्षा करने वाला, अन्तकाल में नहीं है । हे मूर्ख मन ! इनमें लगकर तूँ अपने इस मूल मनुष्य देह को क्यों वृथा गँवा रहा है ? यह संसार तो सैंबल वृक्ष की भाँति है, इसको देखकर तूँ क्या राजी होता है ?
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न तो यह शरीर तेरा है और न यह धन ही तेरा है, इनमें क्या आसक्त हो रहा है ? हे मूर्ख ! हरि के स्मरण बिना, मोह रूप निद्रा में क्या सुख से सो रहा है ? अब अन्त समय नजदीक आ गया । मोह - निद्रा से मुक्त होकर परमेश्वर को क्यों नहीं देखता है ?
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बाप वृद्ध को पुत्र जो, धरे ठीकरे खान ।
पोते ले ले धर दिये, तोको देऊँगो आन ॥१३४॥
दृष्टान्त ~ एक पुरुष की स्त्री बड़ी कमब्रत थी । अपने ससुर को बड़ा दुख देती । खाने - पीने को भी समय पर ठीक - ठीक नहीं देती और कुम्हार के यहाँ से बहुत से ठीकरे लाकर रख लिये । अपने पति को बोली ~ “इसको खेत में रहने के लिए झोंपड़ी डाल दो । यहाँ घर में गन्दगी फैलाता है ।”
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वैसे ही किया । परन्तु उसका बेटा, बूढ़े का पोता, सत्संगी था । उसने अपनी मां को विचार द्वारा ठीक बनाई । यह ठीकरे में भोजन डालकर बेटे के हाथ खेत में भेजती । वह उसको भोजन कराता, जल भर देता, बिस्तर झाड़ देता और लेटा कर, ठीकरे को धोकर घर में टांड पर लाकर धर देता ।
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एक रोज मां ने देखा, “बहुत ठीकरे रखे हैं ।” उसको बोली ~ ये क्यों लाकर रखता है ? लड़का बोला ~ “पिताजी और तूँ आगे बूढ़े होंगे, तब मेरे कौन ठीकरे लावेगा ? इन्हीं ठीकरों में तुम दोनों को भोजन दे दिया करूँगा ।” मां बाप दोनों बिगड़े । लड़का बोला ~ “अगर मेरे से सुख चाहते हो, तो पितामह को घर में लाओ और उसकी सब प्रकार सेवा करो । माता - पिता दोनों, पुत्र ने कहा, वैसे ही सेवा करके पूर्व पाप से मुक्त हो गये ।
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O traveler, today or tomorrow you must depart.
Why do you not look thoughtfully?
Why are you sleeping in comfort?
Devote yourself to God, O mind.
Just as birds come to perch in a tree for the night,
So is all this marker spread out for a while –
All will then go their own way.
None is your kith or companion;
Lose not your source, O mind.
Don’t get lost by looking at worldly things;
They are all flowers of the silk-cotton tree.*
The body is not yours, wealth is not yours –
Why are you absorbed in them?
Why do you sleep in comfort without God?
Why not wake up and see? cautions Dadu.
*The silk-cotton (semal or salmali in Sanskrit) tree is a lofty and thorny tree with attractive red flowers. The parrot, captivated by the outer beauty of the flowers, wants to enjoy the fruit, but when it pecks at the fruit its beak gets stuck and it cannot disengage its bill from the tasteless cotton pods.
(English translation from ~
"Dadu~The Compassionate Mystic"
by K. N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)
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