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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ चतुर्थ बिन्दु ~*
*= इन्द्र द्वारा तपस्या में विघ्न =*
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फिर करडाले पर्वत पर दादूजी की कठोर तपस्या को देखकर देवराज इन्द्र को भय हुआ कि ये मेरे पद की इच्छा से ही इतना कठोर तप कर रहे हैं । इस भय से व्यथित होकर, देवराज इन्द्र ने एक अप्सरा रूप माया को, दादूजी को तप से डिगाने के लिये दादूजी के पास करडाला के पर्वत पर भेजा ।
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उसने आकर दादूजी के सामने काम को जाग्रत् करने हाव भावादि रूप अनेक चेष्टायें कीं । किन्तु दादूजी तो निष्कामी संत थे, उन पर उसकी उन चेष्टाओं का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा । तब उसने निश्चय किया - ये तो महान् निष्काम संत हैं । इनमें काम जाग्रत करना तो असंभव है । किन्तु मुझे इन्द्र की आज्ञा इनको तपस्या से डिगाने की है । अतः इनको इनकी भावना के अनुसार कपट से डिगाने की चेष्टा की जाय तो कहीं सफलता मिल सके ।
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ऐसा विचार करके उसने निरंजन ब्रह्म के साक्षात्कार से पूर्व होने वाले चिन्ह माया से प्रकट करना आरंभ किया । वे दादूजी को दीखने लगे तब दादूजी ने कहा -
*ज्योति चमके तरवरे, दीपक दीखे लोय ।*
*चंद सूर का चाँदणा, पगर छलावा होय ॥*
१. स्थिर ज्योति, २. प्रकाश के तरवरे, ३. दीपक, ४. चंद्रमा, ५. सूर्य, ६. अग्नि राशि का सा प्रकाश और ७. प्रातः संध्या समय का सा प्रकाश ये सब प्रकाश बार बार दीखने लगे ।
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इस प्रकार उक्त सात चरित्र दिखाकर के उसने कहा - जिसकी प्राप्ति के लिये तुम यह कठोर तप कर रहे हो, वही निरंजन मैं तुम्हारी निष्काम तपस्या से अति प्रसन्न हूं, तुम मेरी ओर देखो । किन्तु दादूजी उस माया के उक्त कपट से भी नहीं छले गये ।
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उन्होंने कहा - निरंजन ब्रह्म तो निराकार हैं, और तुम्हारा तो आकार दीख रहा है, अतः तुम निरंजन नहीं हो, माया हो । यहां से शीघ्र चली जाओ । तुम मुझे छलने के लिये आई हो किन्तु मैं तो तुम्हारी बहिन ही हूँ । मैं भी अबला होने से कुछ नहीं समझती हूँ और तू मुझे काम चेष्टा करने वाला पुरुष जानती है । मैं वैसा नहीं हूँ । वैसा पुरुष तो और ही हो सकता है । हम सब का परम पुरुष परमात्मा ही भरतार(स्वामी) है । अतः ये चेष्टायें छोड़कर यहां से चली जाओ ।
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*आन पुरुष हूं बहिनड़ी, परम पुरुष भरतार ।*
*हूँ अबला समझूं नहीं, तू जाने करतार ॥१॥*
कहा भी है -
"सात चरित माया किये, गुरु दादू ढिग जाय ।
इमि पूछत लज्जित हुई, गई चरण शिरनाय ॥१॥"
इमि अर्थात् तुम तो आकार युक्त हो, निरंजन हो तो तुम्हारा आकार कैसे भास रहा है ? यह पूछने पर बहिन कहने से लज्जा से शिर नमा कर, तथा अपनी हार मान कर वह वहां से देवराज इन्द्र के पास चली गई ।
इति श्री दादूचरितामृत चतुर्थ बिन्दु समाप्त ।
(क्रमशः)
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