मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१३९. विरह विनती । त्रिताल ~
मन वैरागी राम को, संगि रहै सुख होइ हो ॥टेक॥
हरि कारण मन जोगिया, क्योंहि मिलै मुझ सोइ ।
निरखण का मोहि चाव है, क्यों आप दिखावै मोहि हो ॥१॥
हिरदै में हरि आव तूँ, मुख देखूं मन धोहि ।
तन मन में तूँ ही बसै, दया न आवै तोहि हो ॥२॥
निरखण का मोहि चाव है, ये दुख मेरा खोइ ।
दादू तुम्हारा दास है, नैन देखन को रोइ हो ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विरहपूर्वक प्रार्थना कर रहे हैं कि हे संतों ! हमारा मन राम के दर्शनार्थ विषयों से वैरागी हो रहा है । जब हम विरहीजन राम के संग रहेंगे, तभी हमको सुख प्राप्त होगा । 
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हरि के कारण हमारा मन भोगों का त्याग करके योगी बन रहा है और यह इच्छा करता है कि किस प्रकार अब हमें हरि के दर्शन होंगे । प्रभु दर्शन करने को हमारे अन्दर बहुत बड़ा उत्साह हो रहा है । हे प्रभु ! अब आप किस प्रकार अपने दर्शन हम विरहीजनों को दिखाओगे ? 
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हे हरि ! आप हमारे हृदय में पधारिये । हम अपने मन को शुद्ध करके आपका दर्शन करें । आप हमारे तन - मन में व्याप्त हो रहे हो । क्या हम विरहीजनों पर आपको दया नहीं आ रही है ? 
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आपके दर्शन करने का हमें चाव उत्साह हो रहा है । यह आपकी अप्राप्ति रूपी दुःख हमारा दूर करिये । हम तो आपके विरहीजन दास हैं, आपके दर्शनों के लिये रो रहे हैं ।
(क्रमशः)

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