गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१४४. झपताल ~
मना, जप राम नाम कहिये ।
राम नाम मन विश्राम, संगी सो गहिये ॥ टेक ॥
जाग जाग सोवे कहा, काल कंध तेरे ।
बारम्बार कर पुकार, आवत दिन नेरे ॥ १ ॥
सोवत सोवत जन्म बीते, अजहूँ न जीव जागे ।
राम सँभार नींद निवार, जन्म जुरा लागे ॥ २ ॥
आस पास भरम बँध्यो, नारी गृह मेरा ।
अंत काल छाड़ चल्यो, कोई नहिं तेरा ॥ ३ ॥
तज काम क्रोध मोह माया, राम राम करणा ।
जब लग जीव प्राण पिंड, दादू गहि शरणा ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु मन के प्रति उपदेश करते हैं कि हे मन ! अब राम - नाम का जाप कर और यह राम नाम का स्मरण तेरे विश्राम का स्थान है । इसके द्वारा जो राम आत्म - स्वरूप है, उसे ग्रहण कर । हे मन ! अब मोह रूप निद्रा में क्या सोता है ? जाग ! तेरे शरीर के कंधे पर काल बाजा बजा रहा है । सतगुरु और संतजन अपने उपदेशों द्वारा पुकार - पुकार कर कह रहे हैं कि तेरे अन्त समय का दिन नजदीक आ रहा है । अज्ञान रूप निद्रा में सोते - सोते तेरे अनेकों जन्म बीत गये, परन्तु अभी तक भी, हे मन रूप अज्ञानी जीव ! तूँ नहीं जाग रहा है । अब जागकर राम - नाम के स्मरण द्वारा, मोह रूप निद्रा को दूर कर । इस मनुष्य - जन्म में शरीर की जर्जर अवस्था, कहिये बुढ़ापा आ पहुँचा है । परन्तु अब भी तूँ, आशा रूपी फांसियों से जकड़ा हुआ है कि मेरी स्त्री है, मेरा घर - बार है, मेरे बेटे - पोते हैं, ऐसे करता - करता ही, तूँ अन्तकाल में सबको छोड़कर चला जाएगा । इनमें कोई भी तेरा साथ देने वाला नहीं है । इसलिये अब तूँ काम, क्रोध, मोह, माया को त्यागकर राम - नाम का स्मरण कर । जब तक हे जीव ! तेरे प्राण - पिंड का वियोग नहीं होता, तब तक राम - नाम की शरण ग्रहण करके रह । इसी में तेरा कल्याण है ।
सांई स्वर्ग पधारिया, कुछ सानों भी अक्ख । 
खीर सपासप मारिया, कुछ पींडी भी चक्ख ॥ १४४ ॥
दृष्टान्त ~ एक गृहस्थी था । उसकी स्त्री बदचलन थी, परन्तु वह उसको कहा क रती कि मैं तुम्हारे बिना इस घर में अकेली कैसे रहूँ ? मुझे तो कुछ खाना - पीना, सोना - जागना, पहरना - ओढ़ना, अच्छा ही नहीं लगता । जिस रोज यह विदेश जाने लगा, तब बोला ~ आज खीर और चूरमा बना लो । जब बन गया, तब उसने सोचा, जरा इसकी परीक्षा तो कर लूँ । पलंग पर लेट गया और फिर अपने श्‍वास को चढ़ा लिया । स्त्री आकर पति को जगाने लगी, तो देखा यह तो मर गया । तब सोचा कि पहले खीर तो खा लूँ, फिर रोऊँगी, नहीं तो बहुत लोग घर में आ जायेंगे, फिर खीर कैसे खाऊँगी । उसने थाली में खीर ठंडी करके खूब डट कर चढ़ा ली और बर्तन वगैरा सब माँज धोकर रख दिये । खीर और चूरमा की पिंडी को दबा कर रख दी, फिर बैठ कर रोने लगी । आस - पास के लोग इकट्ठे हो गये तो स्त्री बड़दावे दे - देकर रोने लगी ।
सांई स्वर्ग पधारिया, कुछ सानों भी अक्ख ।
हे स्वामी ! तुम तो स्वर्ग में चले गये, परन्तु कुछ मुझे भी तो कह जाते । तब वह पलंग पर सूता ही बोला - खीर सपासप मारिया, कुछ पींडी भी चक्ख । यह कहकर वह बैठा हो गया । सब लोग चकित हो गये । उस स्त्री को जैसी पतिव्रता थी, वैसी उसने जान ली और फिर उसको तलाक दे दिया । वह पुरुष सत्संगी था ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें