गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

#daduji 
|| दादूराम सत्यराम ||
"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)" लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान |

= बीठलव्यास और दादूजी में विचार गोष्टी = 
एक दिन बीठलव्यास ने दादूजी से प्रश्न किया - आप मूर्ति पूजा क्यों नहीं करते है ? दादूजी ने कहा - मैं मानस पूजा रूप अन्तः साधना करता हूँ | अन्तः साधना करने वाले को मूर्ती पूजा की आवश्यकता नहीं रहती है | मेरा मन अन्तः साधना में ही लगता है, आत्मस्वरूप राम की पूजा मैं निरंतर करता रहता हूँ -
"पूजन हारे पास है, देही माँहीं देव | 
दादू ताको छोड़ कर, बाहर मांडी सेव ||" 
अर्थ - पूजने वाले के पास देह में ही देही(आत्मस्वरूप राम) देव विद्यमान हैं, उसका ज्ञान नहीं होने से ही बाहर मूर्ति की सेवा रूप साधना करनी पड़ती है | मूर्ति पूजा तब तक ही की जाती है, जब तक मूर्ति वाले भगवान् का यथार्थ ज्ञान नहीं होता है | बीठलव्यास बोले - भगवन् ! नामदेव आदि उच्चकोटि के संतों ने भी तो मूर्ती पूजा की थी ? दादूजी ने कहा - उनहोंने भेद दृष्टि को त्याग कर तथा प्रभु को सर्व रूप मानकरके ही मूर्ति पूजा की थी और रात दिन निरंतर नाम चिन्तन करते थे, तभी तो नामदेव के हाथ से प्रभु ने दूध पान किया था | नामदेव ने श्वान, अग्नि और भूत को भगवान् रूप ही समझा था | उनके समान सभी मूर्ति पूजक नहीं होते हैं, वे तो अन्तः पूजा ही करते थे | अन्य सांसारिक प्राणी ऊपर देखावे मात्र करते हैं -
"ऊपर आलम सब करें, साधु जन घट मांहिं | 
दादू एता अन्तरा, तातैं बनती नांहिं ||" 
जो ऊपर से ही करते हैं, उनसे अन्तः साधना नहीं बनती है | नामदेवादि संत प्रायः आन्तर साधना ही करते थे | इससे अन्तर साधना करने वाले और बाह्य साधना करने वाले समान नहीं होते | बाह्य साधना करने वालों को भी अंत में अन्तः साधना करनी ही पड़ती है | इससे मैं अन्तः साधना ही निरंतर करता रहता हूँ | उक्त उपदेश सुनने से व्यास को संतोष हुआ | और उसे शास्त्रीय सिद्धांत स्मरण आ गया - "बालानाँ प्रतिमा पूजा |" अर्थात् परमेश्वर का स्वरूप नहीं जानते, उन अज्ञात तत्व बालकों के लिये ही मूर्ति-पूजा है | आत्मस्वरूप राम का ज्ञान हो जाने के पश्चात् मूर्ति न पूज कर मूर्तिवाले की ही पूजा की जाती है | अतः संत प्रवर दादूजी का कथन शास्त्र संमत तथा निजी अनुभव से पूर्ण ही है | 
(क्रमशः)

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