॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१४६. अत्यन्त विरह(गुजराती भाषा) । अड्डूताल ~
कोई कहो रे मारा नाथ ने, नारी नैण निहारे बाट रे ॥ टेक ॥
दीन दुखिया सुन्दरी, करुणा वचन कहे रे ।
तुम बिन नाह विरहणी व्याकुल, केम कर नाथ रहे रे ॥ १ ॥
भूधर बिन भावे नहिं कोई, हरि बिन और न जाणे रे ।
देह गृह हूँ तेने आपूं, जे कोई गोविन्द आणे रे ॥ २ ॥
जगपति ने जोवा ने काजे, आतुर थई रही रे ।
दादू ने देखाड़ो स्वामी, व्याकुल होई गई रे ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु इसमें अत्यन्त विरहभाव कह रहे हैं कि हे संतों ! कोई उस हमारे प्रीतम परमेश्वर को जाकर कहो कि आपकी विरहिनी सुन्दरी आपके दर्शनों के लिये नेत्रों से मार्ग देख रही है । हमतो उस प्रभु के दर्शनों के बिना दीन दुःखी हो रही हैं और कातरता युक्त वचन कह रहे हैं । हे पति ! आपके बिना हम विरहिनी अत्यंत व्याकुल हैं । इस शरीर में अब हमारे प्राण कैसे रहें ? हे भूधर ! भूमि को या गोवर्धन को धारण करने वाले! आपके बिना हमें इस त्रिलोकी में कुछ भी प्रिय नहीं लगता है । हम तो हे हरि ! आपके बिना और किसी को भी अपना स्वामी नहीं अपनाते । हे संतों ! जो कोई हमको गोविन्द से मिला दे, तो उसको हम अपना घर - द्वार और प्राण भी अर्पण कर दें । हे जगपति ! आपके दर्शन करने के लिये हम तो अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं । अब तो हम विरहीजनों को आप अपना दर्शन दिखाओ, हम अत्यन्त व्याकुल हो रही हैं ।
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