सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

२०. साधु को अंग ~ २०

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*२०. साधु को अंग* 
*हीरा ही न लाल ही पारस न चिंतामनि,*
*और ऊ अनेक नग कहौ कहा कीजिये ।*
*कामधेनु सुरतरु चंदन नदी समुद्र,*
*नौका ऊ जिहाज बैठि कबहूंक छीजिये ।*
*पृथ्वी अप तेज वायु ब्यौंम लौं सकल जड़,*
*चाँद सूर शीतल तपत गुन लीजिये ।*
*सुन्दर बिचार हम सोधि सब देखे लोक,*
*संतनि कै सम कहौ और कहा दीजिये ॥२०॥*
*सन्तों के सन्मुख सभी सांसारिक पदार्थ तुच्छ* : सन्तों की समानता इस जगत् उत्पन्न कोई भी वस्तु नहीं कर सकती; न हीरा, न कोई रत्न, न पारस पत्थर, न चिंतामणि, कोई रत्न या माणिक्य; भलेही वह कहीं भी पैदा हुआ हो ।
या फिर भले ही वह देवलोक की कामधेनु गौ हो, या कल्पवृक्ष हो, या पारिजात चन्दन हो, या गंगानदी या क्षीरसमुद्र हो । या कोई जहाज मैं बैठ कर सुदूर प्रदेश से कुछ भी ले आवे या उसके लाने में भी कितना भी समय या द्रव्य व्यय कर दे । 
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश या अन्य समस्त जड़ पदार्थ, सूर्य और चन्द्रमा, की उष्णता एवं शीतलता - उन सन्तों के गुणों की कोई भी समानता नहीं कर सकता । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हमने इस जगत् में उत्पन्न हुई सभी वस्तुओं पर विचार करके देख लिया, परन्तु सन्तों के गुणों के समान हमें कोई भी वस्तु नहीं मिली ॥२०॥ 
(क्रमशः)

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