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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२०. साधु को अंग*
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*इन्द्रानी शिंगार करि चंदन लगायौ अंग,*
*वाही देखि इन्द्र अति काम बस भयौ है ।*
*शूकरी हू कर्दम कै चहले मैं लौटि करि,*
*आगै जाइ शूकर कौं मन हरि लयौ है ॥*
*जैसो सुख शूकर कौं तैसौ सुख मघवा कौं,*
*तैसौ सुख नर पशु पंखिन कौं दयौ है ।*
*सुन्दर कहत जाकै भयौ ब्रह्मानन्द सुख,*
*सोई साधु जगत में जन्म जीत गयौ है ॥१४॥*
*जन्म परम्परा पर विजय* : इन्द्राणी अपने शरीर का सोलह श्रंगार कर तथा उस पर चन्दन का लेप कर यदि इन्द्र के सम्मुख जाय तो इन्द्र उसे देखकर काम रोग के अधीन हो जाता है ।
उधर कोई शूकरी कीचड़ भरे गड्ढे(चहले) में लोट कर उसी कीचड़ भरे शरीर से शूकर के सामने जा खड़ी हो तो वह शूकर भी उसके प्रति उसी तरह कामाभिभूत हो जाता है ।
उस शूकर को वह कामसुख जैसा मिलता है, वैसा ही इन्द्र को भी । किसी भी मनुष्य, पशु या पक्षी के लिये वह कामसुख सर्वसाधारण ही है ।
महाराज *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - परन्तु जिस साधु महात्मा को ब्रह्मानन्द रूप सुख अधिगत हो गया, वह साधु इस जगत् की जन्ममरण परम्परा को निश्चित ही जीत गया है - ऐसा समझो ॥१४॥
(क्रमशः)

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