गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

२०. साधु को अंग ~ २३

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*२०. साधु को अंग* 
*सांचौ उपदेश देत भली सीख देत,*
*समता सुबुद्धि देत कुमति हरत हैं ।*
*मारग दिखाइ देत भाव हू भगति देत,*
*प्रेम की प्रतीति देत अभरा भरत हैं ॥*
*ज्ञान देत ध्यान देत आतमा बिचार देत,*
*ब्रह्म कौ बताइ देत ब्रह्म मैं चरत हैं ।*
*सुन्दर कहत जग संत कछु देत नाहिं,*
*संत जन निश दिन देबौई करत हैं ॥२३॥*
*सन्तों की दानशीलता* : महाराज श्री सुन्दरदास जी कहते हैं कि सन्तों के विषय में यह प्रवाद फैला हुआ है कि वे जगत् से लेते ही लेते हैं, कुछ देते नहीं; वस्तुतः वे जगत् को बहुत कुछ देते ही रहते हैं जैसे -
वे जिज्ञासु को सत्य ज्ञान का उपदेश देते हैं, भली शिक्षा देते है, सब में समभाव रखने की सदबुद्धि दे कर उसकी कुबुद्धि को नष्ट कर देते हैं । 
सन्मार्ग दिखाते हुए शिष्य को भगवान् के प्रति भाव भक्ति सिखाते हैं, प्रेमभाव प्रदान करते हैं तथा खाली मष्तिक को सद्गुणों से भर देते हैं । 
ज्ञान एवं ध्यान का मारग बताते हैं, आत्मविचार की शक्ति प्रदान करते हैं, ब्रह्मज्ञान का उपदेश करते हैं, तथा साक्षात्कार की ओर प्रवृत करते हैं । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जगत् भले ही कहता रहे कि सन्त कुछ देते नहीं; परन्तु वे जगत् को सदा कुछ न कुछ देते ही रहते हैं ॥२३॥ 
(क्रमशः)

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