#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
उपज्यो प्रपंच अनादिको,
यह महामाया विस्तरी ।
नानात्व ह्वै करि जगत भास्यो,
बुद्धि सबहिन की हरी ॥
जिनि भ्रम मिटाय दिखाय दीयो,
सर्व व्यापक राम हैं ।
दादूदयालु प्रसिद्ध सद्गुरु,
ताहि मोर प्रणाम हैं ॥
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साभार : Rp Tripathi ~
**मायिक सत्य ? और वास्तविक सत्य ? :: एक लघु वैज्ञानिक प्रयोग**
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प्रयोग - गर्मी के दिनों में रेगिस्तान में, रेत के टीलों का, दिन के तीन समय - प्रातःकाल-दोपहर और सायंकाल, दर्शन !! अवलोकन - प्रातःकाल और शायंकाल रेत, और दोपहर में जल के दर्शन !! परंतु, जहाँ जल दिखाई देता है, उसके पास जाने से,उसका निरीक्षण करने से, सिर्फ रेत ही रेत से मुलाक़ात, जल की उपलब्धि कभी नहीं !! अर्थात दो सत्यों का दर्शन - एक मायिक सत्य : मृगजल, और दूसरा वास्तविक सत्य, रेत !!
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(वास्तविक सत्य - जो पूर्व और अंत में है, वही, मध्य में भी दिखाई दे, वह वास्तविक सत्य … !! मायिक सत्य - और जहाँ, आदि और अंत की विस्मृति हो जाए, और केवल, मध्य ही दिखाई दे, वह मायिक सत्य !!) ..
प्रयोग निष्कर्ष -
सूत्र रूप में - जो आदि और अंत में होता है, वही मध्य में होता है !!
{मृगजल से पूर्व : रेत(प्रातःकाल), मृगजल के बाद : रेत(शायंकाल), तो अभी मध्य(दोपहर) में भी, मृगजल दिखते हुए भी, रेत !! }
व्याहारिक-उपयोगिता -
इस भौतिक शरीर से पूर्व, हम आत्मा हैं, इस भौतिक-शरीर के बाद में भी हम, आत्मा हैं, तो अभी भी, शरीर दिखते हुए भी हम, आत्मा ही हैं !! अर्थात - मायिक सत्य - हम शरीर हैं !! और वास्तविक सत्य -- हम आत्मा हैं !!
कल्पना करें - यदि हमें, जीवन जीते समय, अपने वास्तविक स्वरुप की स्मृति हो जाये, तो जीवन में कितना चमत्कारिक परिवर्तन आ जायेगा !! अर्थात जीवन रहते ही हम, जीवन-मुक्त अवस्था को उपलब्ध हो जाएंगे !! शांति, प्रसन्नता, निर्भयता, उदारता, समता, अमरता, आदि के दिव्य भाव तो हमारे जीवन के, सहज हिस्से बन जायेंगे !!
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क्योंकि, फिर हमें इन चारों अवस्थाओं - जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति, और तुर्यावस्था(समाधि) की वास्तविकता का सच भी अवगत हो जायेगा कि यह चारों भी, मायिक हैं, अर्थात सिर्फ मध्य में दिखाई देने वाली हैं !! वास्तविक सत्य तो कालातीत रूप से, इन चारों अवस्थाओं के, पूर्व, मध्य और अंत, में एक समान रूप से उपस्थित, सिर्फ एक हमारा, आत्म-स्वरुप(ईस्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशी), ही है !!
और फिर जिस तरह, एक नवजात शिशु, अंश रूप से, अपनी अंशी, माँ से ही पोषित रहता है, माँ की गोद ही उसके लिए, सबसे बड़ी सुरक्षा-कवच रहती है, ऐंसे ही, जीवन-मुक्त के लिए, ईस्वर शरणागति ही, माँ की गोद की तरह, सबसे बड़ी सुरक्षा कवच रहती है, !!
और ऐसे व्यक्ति का, स्वाभाविक रूप से ही, सांसारिक वस्तुओं(धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा-मान-अपमान, आदि) के प्रति, मृगजल के सदृश्य भाव हो जाता है !! अर्थात, अब उसे संसार से, अपने लिए कुछ नहीं चाहिए !!
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वह सिर्फ सिर्फ संसार चक्र में, लोक-धर्म की मर्यादा के पालन के लिए, गीता के स्वधर्म का, राग-द्वेष से मुक्त, समता में स्थित हो, आचरण करता है, क्योंकि वह भली-भाँति जानता है कि - लोक-मर्यादा में, महाजन येन गतः सा पन्था का, क्या महत्त्व होता है !!
यह सत्य है, हम सबको, अपने या दूसरों के, आत्म-स्वरुप की स्मृति तो होती है, परन्तु होती है बहुत बिलम्ब से !! जीवन के लगभग अंतिम पलों में, या मरघट पर !! यह तो ऐंसे ही है जैसे वर्षा तो हुई, परन्तु फसल सूख सूख जाने के बाद !! परन्तु यदि हम इस आलेख में वर्णित, विषय वस्तु की, प्रमाणिकता को परखना चाहें, तो अभी इसी वक्त - 5-10 मिनिट के लिए, आँखें बंद कर, एक छोटा सा प्रयोग करें -
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प्रयोग -
सिर्फ एक विचार को हम, मन ही मन, बार बार दुहरायें - मुझे सँसार से कुछ नहीं चाहिए ..!!
अनुभूति - हम कुछ ही देर में अनुभव करेंगे कि - हमारी स्वांश, स्वतः ही बहुत धीमी और बहुत ही सहज, हो गई है !! हमारे माथे पर शीतलता छाने लगी है !! आतंरिक प्रसन्नता स्वतः ही प्रगट होने लगी है !!
और धीरे धीरे हमें ऐसा अनुभव होने लगा है कि -
जैंसे हम, एक बर्फ के टुकड़े हों, जो समुद्र में पहुँच, धीरे धीरे पिघल, अपने अंश-रूप को, खोते जा रहे हैं !! अर्थात, अहंकार मुक्त होते जा रहे हैं !!
********ॐ कृष्णम वंदे जगत-गुरुम********

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