मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

२०. साधु को अंग ~ २१

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*२०. साधु को अंग* 
*जिन तन मन प्रांन दियौ सब मेरै हेत,* 
*और हूँ ममत्त्व बुद्धि आपुनि उठाई है ।* 
*जागतऊ सोवतऊ गावत है मेरे गुन,* 
*मेरौई भजन ध्यान, दूसरी न काई है ॥* 
*तिनकै मैं पीछे लग्यौ फिरत हौं निसिदिन,* 
*सुन्दर कहत मेरी उन तैं बड़ाई है ।* 
*वै हैं मेरे प्रिय, मैं हूँ उनके अधीन सदा,* 
*संतनि की महिमा तौ श्रीमुख सुनाई है ॥२१॥* 
*जिस सन्त ने मेरे लिये अपना तन, मन, प्राण - सब कुछ लगा दिया है, तथा अन्यत्र से अपनी ममत्त्वबुद्धि सर्वथा हटा ली है ।* 
*वह सोते जागते हुए मेरे गुणों का ही बखान, ध्यान या भजन करता रहता है । उसका यहाँ अन्य कोई कार्य नहीं है ।* 
*उन की रक्षा हेतु मैं दिन रात उनके साथ लगा रहता हूँ; क्योंकि उनके अस्तित्व से ही मेरा माहात्म्य भी स्थिर है१ ।* 
(१. तुल० - "अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपास्ते ॥ 
तेषां नित्याभियुत्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम ॥") 
*वे मेरे सर्वथा प्रिय हैं, मैं उनके सदा अधीन हूँ ।* 
- इस प्रकार भगवान् ने अपने श्रीमुख से सन्तों की महिमा का स्वयं वर्णन किया है । ऐसा श्री सुन्दरदास जी कहते हैं ॥२१॥ 
(क्रमशः)

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