मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

= १२४ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
मन निर्मल तन निर्मल भाई,
आन उपाइ विकार न जाई ॥टेक॥
जो मन कोयला तो तन कारा,
कोटि करै नहिं जाइ विकारा ॥१॥
जो मन विषहर तो तन भुवंगा,
करै उपाइ विषय पुनि संगा ॥२॥
मन मैला तन उज्जवल नांहीं,
बहु पचहारे विकार न जांहीं ॥३॥
मन निर्मल तन निर्मल होई,
दादू साच विचारै कोई ॥४॥
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सावधान...!!!

स्वच्छता हमें बहुत पसन्द है। घर, बिस्तर, वस्त्र, भोजन, शरीर, सब स्वच्छ रहें -- इसके लिए हम यथा शक्ति प्रयास करते हैं। धरती, पानी, दृश्य, स्पृश्य, ध्वनि -- सभी स्वच्छ, निष्कलंक मिले -- ऐसा हम सब एक राय से चाहते हैं। शरीर पर मिट्टी लग जाये, कोई दाग पड़ जाये तो उसको छुड़ाने के लिए हम भरसक प्रयत्नशील रहते हैं। मैं इस पसंद को पसंद करता हूँ। यह बनी रहे, बढ़ती रहे।
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थोड़ासा अन्तर्देश के सूक्ष्मतम प्रदेश में प्रवेश करते हैं ! वहाँ हमारे संकल्प में, इच्छाओं में, विचारों में और स्थितियों में स्वच्छता कितनी रहती है -- कभी ध्यान दिया है हमने ? जैसे ऊपर-ऊपर कपडा बहुत स्वच्छ हो और उसके भीतर शरीरपर मैल लगा हो -- ऐसी ही स्थिति है हमलोगों की, हमलोग अपने अन्तःकरण की गंदगी को दूर करने का प्रयास नहीं करते। आइये उसपर एक पैनी दृष्टि डालते हैं !
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हमारा मन क्या-क्या करना चाहता है ? क्या-क्या भोगना चाहता है ? क्या-क्या पाना चाहता है और क्या-क्या बोलना चाहता है ? आप गिनने का प्रयास कीजिये। यह गिनती कभी पूरी नहीं होगी। बाजार में जितने शो-रूम हैं, जितनी दुकानें हैं, जो कुछ उपलब्ध है -- उसको पाने की इच्छा कभी-न-कभी आप के मन में आती है, आती रहेगी।
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हमारा मन क्या है ? भानुमति का पिटारा। उसमें चाहे जो देख लीजिये -- भला-बुरा। भगवान देखिये, जीव देखिये, ईंट-पत्थर देखिये। चोरी, व्यभिचार, हिंसा, झूठ-सबकी झलक वहाँ मिलती रहती है। तो क्या हम बाहरका सब-कुछ स्वच्छ चाहते हैं, भीतर का नहीं ? हम वहीं तो रहते हैं। अन्तर्देश ही हमारा मकान है, वस्त्र है, भोग है, कर्म है, वचन है । यदि मन ही गन्दा है तो हमारी बाहरी स्वच्छता किस काम की ?
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क्या हम इसी पोशाकमें रहना चाहते हैं ? या यही पोशाक लेकर कृष्ण के पास जाना चाहते हैं ? सावधान !
जय राधे...!!!

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