शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१२८. गुजराती भाषा । त्रिताल ~
वाहला हौं जाणूं जे रंग भर रमिये, 
मारो नाथ निमिष नहिं मेलूँ रे ।
अंतरजामी नाह न आवे, 
ते दिन आव्यो छैलो रे ॥टेक॥
वाहला सेज हमारी एकलड़ी रे, 
तहँ तुजने केम न पामों रे ।
आ दत्त अमारो पूरबलो रे, 
तेतो आव्यो सामों रे ॥१॥
वाहला मारा हृदया भीतर केम न आवै, 
मने चरण विलम्ब न दीजे रे ।
दादू तो अपराधी तारो, 
नाथ उधारी लीजे रे ॥२॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विरहीजनों का विलाप दिखा रहे हैं कि हे हमारे प्यारे परमेश्‍वर ! हम विरहीजन अपने अन्तःकरण में आपका प्रेम रूपी रंग भरकर आपसे खेलें, क्योंकि आप हमारे स्वामी हो । आपको हम अपने हृदय से एक क्षण भी अलग नहीं करना चाहते ।
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हे अन्तर्यामी हमारे पति ! आप अभी तक आये नहीं और अन्त समय का दिन हमारा आ पहुँचा है । हे प्यारे ! हमारी हृदय रूपी सेज आपके बिना खाली है । इस पर हम आपको क्यों नहीं प्राप्त कर रहे हैं, आपके दर्शनों के बीच हमारे कोई पूर्व के कर्म प्रतिबन्धक हो रहे हैं,
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हे प्यारे ! आप दया करके हमारे हृदय में अपने दर्शन क्यों नहीं देते हो ? यह उम्र रूपी रात्रि बीतती जा रही है । अब तो हमको, आपके चरणों का दर्शन करने दो । हम तो विरहीजन, आपके अपराधी सेवक हैं । हे स्वामी ! अब आप ही हमारा उद्धार करो ।
(क्रमशः)

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