॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*२०. साधु को अंग*
.
*कोऊ साध भजनीक हुतौ लयलीन अति,*
*कबहूं प्रारब्ध कर्म धका आइ दयौ है ।*
*जैसे कोऊ मारग मैं चलतै आंखुटि परै,*
*फेरि करि उठै तब उहै पंथ लयौ है ॥*
*जैसैं चन्द्रमा की पुनि कला क्षीण होइ गई,*
*सुन्दर सकल लोक दुतिया कौं नयौ है ।*
*देव कौ देवातन गयौ तौ कहा भयौ बीर,*
*पीतर कौ मोल सु तौ नहिं कुछ गयौ है ॥२६॥*
*साध का प्रमाद नगण्य* : कोई भजनानन्दी साधु, जो दिन रात प्रभु भजन में लीन रहता है, प्रारब्ध कार्यवश कभी उससे प्रमाद भी हो जाया करता है ।
वह ऐसा ही है, जैसे कोई मारग में चलता हुआ ठोकर खा कर गिर पड़े, परन्तु पुनः उठ कर अपने गन्तव्य मारग पर चल दे ।
जैसे चन्द्रमा की कभी(कृष्णपक्ष में) कला क्षीण हो जाय परन्तु सभी जानते हैं कि उस क्षीण कला वाले चन्द्रमा की कलाएँ प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष में क्रमशः पुनः बढ़ने लगती हैं ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसी तरह देवता की मूर्ति का देवत्व चला गया हो तो क्या हुआ ! उसका पीतल तो वर्तमान है ही, पीतल के भाव से तो उसे कभी भी बेचा जा सकता है ! ॥२६॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें