सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

२०. साधु को अंग ~ १३

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*२०. साधु को अंग* 
*=== मनहर छंद ==*
*देव हूँ भये तैं कहा, इन्द्र हू भये तैं कहा,* 
*बिधि हू कै लौक तैं बहुरि आइयतु है ।*
*मानुष भये तैं कहा, भूपति भये तैं कहा,* 
*द्विज हूँ भये तैं कहा पार जाइयतु है ॥*
*पशु हूँ भये तैं कहा, पंखी हूँ भये हैं कहा,* 
*पन्नग भये तैं कहौ क्यौ अघाइयतु है ।* 
*छूटिबे कौ सुन्दर उपाय एक साधु संग,* 
*जिनकी कृपा तैं अति सुख पाइयतु है ॥१३॥*
*वास्तविक सुखप्राप्ति का उपाय* : सांसारिक प्राणी प्रारब्धवश कभी देवता भी बन सकता है, देवराज इन्द्र भी बन सकता है, ब्रह्मलोक में भी पहुँच सकता है, जहाँ से कर्म क्षीण होने पर पुनः आना पड़ता है । 
मनुष्य लोक में आकर राजा भी बन जाय तो क्या बड़ाई है, या फिर ब्राह्मण जाति से ही जन्म ले ले तो क्या केवल इतना होने मात्र से उस का संसार में आना जाना मिट जायगा । 
वह पशु हो जाय, या पक्षी हो जाय, या सर्पयोनि में चला जाय तो क्या उससे उसकी तृप्ति हो जायगी ? 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इस संसार में आना जाना छूटने का एकमात्र यही उपाय है कि जब भी अवसर मिले साधुओं की संगति में ही रहा जाय, जिनकी कृपा से हमें परमसुख(मोक्ष) प्राप्त होना सम्भव है ॥१३॥ 
(क्रमशः)

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