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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२०. साधु को अंग*
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*मृतक दादुर जीव सकल जिवाये जिन,*
*बरखत बांनी मुख मेघ की धार कौं ।*
*देत उपदेश, कोऊ स्वारथ न लवलेश,*
*निश दिन करत है ब्रह्म ही विचार कौं ॥*
*और ऊ संदेहिनि मिटावत निमिष मांहि,*
*सूरज मिटाइ देत जैसे अंधकार कौं ।*
*सुन्दर कहत हंस बासी सुख सागर के,*
*संतजन आये हैं सु पर उपकार कौं ॥१९॥*
*पर उपकारी सन्तजन* : जैसे मेघों से बरसे हुए जल से वर्षा ऋतु में मैंढक आदि प्राणी पुनः जीवित हो उठते हैं; उसी तरह सन्त की वाणी से भी अमृत झरता है ।
वह जो उपदेश करता है उसमें स्वार्थपूर्ति का कोई अंश नहिं रहता; वह तो रात दिन ब्रह्मविचार में ही लीन रहता है ।
उस उपदेश के श्रवणमात्र से जगत्प्रपंच के विषय में साधक को जो भी सन्देह होता है, वह तत्काल क्षीण हो जाता है, जैसे सूर्य के प्रकाश से अन्धकार क्षीण हो जाया करता है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - ये हंस स्वरूप महात्मा सन्तजन स्थायी रूप से तो सुखसागर के तीर पर ही रहने वाले हैं, वे केवल पर उपकार हेतु इस संसार में पधारे हैं ॥१९॥
(क्रमशः)
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