शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

२०. साधु को अंग ~ २४

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*२०. साधु को अंग* 
*जगत ब्यौहार सब देखत है ऊपर कौ,* 
*अन्तहकरन कौ न नैंक पहिचांनि है ।* 
*छाजन कै भोजन कै हलन चलन कछु,* 
*और कोऊ क्रिया करै सोई तो बखांनि है ॥* 
*आपनेई गुननि आरोपत अज्ञानी नर,* 
*सुन्दर कहत तातैं निंदाई कौं ठांनि है ।* 
*भाव मैं तो अन्तरि है राति अरु दिन कौ सौ,* 
*साधु की परीक्षा कोऊ कैसें करि जांन है ॥२४॥* 
*साधुत्वपरीक्षण कठिनतम* : यह संसार केवल ऊपर का व्यवहार देखता है । उसको किसी के अन्तःकरण में क्या है ? इसकी कोई पहचान नहीं है । 
वह संसार तो केवल वस्त्र एवं भोजन के लिये जो सन्त प्रयास करता है । या वह जो अन्य शारीरिक क्रिया करता है उसे ही देख पाता है । 
ये अज्ञानी लोग अपनी क्रियाओं को ही दूसरों पर भी आरोपित कर देखने लगते हैं । अतः वे निन्दा के ही पात्र बनते हैं । 
क्योंकि ज्ञानी और अज्ञानी के हार्दिक भावों में दिन रात का अन्तर है, अतः *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं, साधु महात्मा की परीक्षा करने में कौन समर्थ है ॥२४॥ 
(क्रमशः)

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