सोमवार, 2 मार्च 2015

= ६ =

卐 सत्यराम सा 卐
एक शब्द जन ऊधरे, सुनि सहजैं जागे ।
अंतर राते एक सौं, सर सन्मुख लागे ॥
शब्द समाना सन्मुख रहै, पर आतम आगे ।
दादू सीझै देखतां, अविनाशी लागे ॥
=====================
@Bhakti ~
किसी ने बहुत ही अच्छा कहा -
"प्राप्त करो ब्रह्मज्ञान, मत बैठो भाग्य सहारे,
धरती पर कितने जन बने महान,
मिटा डाले जिन्होँने मन के अंधियारे।
मिला है जीवन प्रभु को पाने को,
हो व्याकुल अंतः ज्ञान प्रकाश जगाने को,
दग्ध करो संस्कार कई जन्मोँ के सारे।
प्राप्त करो ब्रह्मज्ञान मत बैठो भाग्य सहारे।"
हम देखेँ कि हम जो भी कार्य करते हैँ उसका परिणाम हमेँ भुगतना ही पड़ता है; अच्छे कर्म हैँ तो अच्छा फल और बुरे का बुरा मिलता ही है । कई बार ऐसा भी होता है कि सदा अच्छाई का अनुसरण करने वाले व्यक्ति को भी बहुत कष्टोँ का सामना करना पड़ता है, लेकिन क्योँ? क्योँकि ये उसके पूर्वजन्म के कर्मोँ का ही फल है जिसे उसी को भोगना होता है।
लेकिन विचारणीय है कि क्या "सृष्टि का सिरमौर" मनुष्य अपने भाग्य को बदल नहीँ सकता है ??
क्या ऐसा कोई तरीका है जिससे हम अपने कर्म बंधनोँ को काट सकेँ, भस्म कर सकेँ ??
हाँ, है; भगवान श्रीकृष्ण ने गीता मेँ कहा -
"यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात कुरुते तथा ॥"
अर्थात जैसे प्रज्वलित अग्नि ईँधन को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सभी कर्मोँ को भस्म कर देती है ।
इसलिए जरूरत है उस ज्ञान अर्थात "ब्रह्मज्ञान" की !
ब्रह्मज्ञान हृदय मेँ 'ब्रह्म' के प्रकाश-स्वरुप का प्रत्यक्ष दर्शन है। हर युग मेँ "पूर्ण गुरुओँ" ने जिज्ञासुओँ को इसी ज्ञान मेँ दीक्षित किया है। इस प्रक्रिया मेँ वे शिष्य की "दिव्य-दृष्टि" खोलकर उसे अंतर्मुखी बना देते हैँ। शिष्य अपने अंतर्जगत मेँ ही अलौकिक प्रकाश का दर्शन और अनेकानेक दिव्य-अनुभूतियाँ प्राप्त करता है। अतः हम भी एक "पूर्ण संत" के सान्निध्य को प्राप्त करेँ और इस महान "ब्रह्मज्ञान" को प्राप्त कर अपने मानव जीवन के परम लक्ष्य की ओर अग्रसर होवेँ ।
क्योँकि क्या पता कब ज़िँदगी की शाम आ जाए और हमारा ये अनमोल मानव तन यूँ ही चला जाए ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें