#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*२२. विपर्यय को अंग *
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय को अंग *
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*मुक्त पुरुष के लक्षण* -
सवैया छंद१(१. यह छन्द मात्रिक सवैया है । इस को शास्त्र में 'वीर सवैया' भी कहते हैं । इसमें - १६ + १५ = ३१ मात्रा तथा अन्त में गुरु लघु अक्षर होते हैं ।)
*श्रवनहुं देखि, सुनै पुनि नैंन हुं,*
*मुक्त पुरुष के लक्षण* -
सवैया छंद१(१. यह छन्द मात्रिक सवैया है । इस को शास्त्र में 'वीर सवैया' भी कहते हैं । इसमें - १६ + १५ = ३१ मात्रा तथा अन्त में गुरु लघु अक्षर होते हैं ।)
*श्रवनहुं देखि, सुनै पुनि नैंन हुं,*
*जिव्हा सूंघी, नासिका बोल ।*
*गुदा खाइ, इन्द्रिय जल पीवै,*
*गुदा खाइ, इन्द्रिय जल पीवै,*
*बिन ही हाथ सुमेरु हि तोल ॥*
*ऊंचे पाइ, मूंड नीचे कौं,*
*ऊंचे पाइ, मूंड नीचे कौं,*
*बिचरत नीति लोक मैं डोल ।*
*सुन्दरदास कहै सुनि ज्ञानी,*
*सुन्दरदास कहै सुनि ज्ञानी,*
*भली भांति या अर्थ ही खोल ॥१॥*
*महाराज श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हे ज्ञानी ! तुम्हें सन्त परम्परा में प्रयुक्त होने वाले इन विपरीत(लोकसामान्य से विरुद्ध अर्थ वाली उलटवाँसी - विपर्यय बोधक) शब्दों का अर्थ इस प्रकार समझ लेना चाहिये -
*श्रवणहुँ देखि* = आत्मा के विषय में शास्त्रप्रतिपादित विधि से जानना । जैसा कि उपनिषद् में कहा है - "आत्मा वा अरे दृष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः ।"
*सुनै पुनि नैनहुँ* = अन्तर्दृष्टि से आत्मा के विषय में समझना, मनन करना ।
*जिह्वा सूँघि* = वाणी से निरन्तर रटी जाती हुई ॐ, राम या ररंकार शब्दों ध्वनि का आनन्द अनुभव करना ।
*नासिका बोल* = अपने प्रत्येक श्वास प्रश्वास के साथ 'सोहम्', 'हंस:' भाव का अनुसंधान करना ।
*गुदाखाइ* = योगशास्त्र के अनुसार मूलाधार चक्र से योगाभ्यास करना ।(मूलाधार चक्र : योगशास्त्र में वर्णित छह चक्रों में सबसे नीचे का चक्र) ।
*इन्द्रिय जल पीवै* = सभी चक्षु आदि इन्द्रियों का प्रत्याहार(इन्द्रियों को सभी बाह्य विषयों से हटाकर मन के साथ निरुद्ध) करना ।
*बिन ही हाथ सुमेरु हि तोल* = बाह्य पदार्थों की ममता त्यागते हए अपने अहम् भाव का विनाश करना ।
*ऊँचे पाइ* = 'मैं ब्रह्म हूँ' - ऐसी अपनी उच्च भावना रखना, या उच्चतम परम पद ब्रह्म को प्राप्त करने का लक्ष्य रखना, अथवा सतत उच्च आध्यात्मिक चिन्तन में मग्न रहना ।
*मूँड नीचे कौं* = अपने हृद्गत अहम् भाव को सर्वथा नष्ट कर हितोपदेष्टा सन्त महात्माओं के प्रति सदा विनयावनत रहना, उनको प्रणाम करना ।
*महाराज श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हे ज्ञानी ! तुम्हें सन्त परम्परा में प्रयुक्त होने वाले इन विपरीत(लोकसामान्य से विरुद्ध अर्थ वाली उलटवाँसी - विपर्यय बोधक) शब्दों का अर्थ इस प्रकार समझ लेना चाहिये -
*श्रवणहुँ देखि* = आत्मा के विषय में शास्त्रप्रतिपादित विधि से जानना । जैसा कि उपनिषद् में कहा है - "आत्मा वा अरे दृष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः ।"
*सुनै पुनि नैनहुँ* = अन्तर्दृष्टि से आत्मा के विषय में समझना, मनन करना ।
*जिह्वा सूँघि* = वाणी से निरन्तर रटी जाती हुई ॐ, राम या ररंकार शब्दों ध्वनि का आनन्द अनुभव करना ।
*नासिका बोल* = अपने प्रत्येक श्वास प्रश्वास के साथ 'सोहम्', 'हंस:' भाव का अनुसंधान करना ।
*गुदाखाइ* = योगशास्त्र के अनुसार मूलाधार चक्र से योगाभ्यास करना ।(मूलाधार चक्र : योगशास्त्र में वर्णित छह चक्रों में सबसे नीचे का चक्र) ।
*इन्द्रिय जल पीवै* = सभी चक्षु आदि इन्द्रियों का प्रत्याहार(इन्द्रियों को सभी बाह्य विषयों से हटाकर मन के साथ निरुद्ध) करना ।
*बिन ही हाथ सुमेरु हि तोल* = बाह्य पदार्थों की ममता त्यागते हए अपने अहम् भाव का विनाश करना ।
*ऊँचे पाइ* = 'मैं ब्रह्म हूँ' - ऐसी अपनी उच्च भावना रखना, या उच्चतम परम पद ब्रह्म को प्राप्त करने का लक्ष्य रखना, अथवा सतत उच्च आध्यात्मिक चिन्तन में मग्न रहना ।
*मूँड नीचे कौं* = अपने हृद्गत अहम् भाव को सर्वथा नष्ट कर हितोपदेष्टा सन्त महात्माओं के प्रति सदा विनयावनत रहना, उनको प्रणाम करना ।
*तीन लोक में विचरत डोल* = तीनों अवस्थाओं - बाल, युवा, वृद्ध अवस्थाओं या श्रवण, मनन, निदिध्यासन - इन तीन अवस्थाओं का साक्षिमात्र बन कर लोक व्यवहार में प्रवृत होना ॥१॥
(क्रमशः)
(क्रमशः)

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