#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू जिन पहुँचाया प्राण को, उदर उर्ध्व मुख खीर ।
जठर अग्नि में राखिया, कोमल काया शरीर ॥
दादू समर्थ संगी संग रहै, विकट घाट घट भीर ।
सो सांई सूं गहगही, जनि भूलै मन बीर ॥
*(श्री दादूवाणी ~ विश्वास का अंग)*
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साभार : @Vijay Divya Jyoti ~
एक समुराई(जापानी क्षत्रिय जो अपने पास तलवार रखते हैं) अपनी नववधु के साथ घूमने के लिए समुद्र-यात्रा पर था। सूर्यास्त हुआ, रात्रि का घना अंधकार छा गया और फिर एकाएक जोरों का तूफान उठा। यात्री भय से व्याकुल हो उठे। प्राण संकट में थे और जहाज अब डूबा, तब डूबा होने लगा।
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किंतु वह समुराई जरा भी नहीं घबड़ाया। उसकी पत्नी ने आकुलता से पूछा, 'तुम निश्चिंत क्यों बैठे हो ? देखते नहीं कि जीवन बचने की संभावना क्षीण होती जा रही है! तुम कुछ करते क्यों नहीं ?' उस युवक ने अपनी म्यान से तलवार निकाली और पत्नी की गर्दन पर रखकर कहा कि 'क्या तुम्हें डर नहीं लग रहा है, मैं तुम्हारी गर्दन अलग करने जा रहा हूँ।'
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वह युवती हंसने लगी और बोली कि 'जब तलवार तुम्हारे हाथ में है तो मैं डरूँ क्यों ? क्योंकि तुम मुझे प्यार करते हो और मुझे तुम पर भरोसा है।' तभी वह युवक बोला 'बस तो ये समझ ले कि ये तूफान उसके(परमात्मा के) हाथ में है और वो मुझे प्रेम करता है और मेरी उस पर श्रद्धा है क्योंकि उसकी गंघ मुझे मिल चुकी है।'
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सभी प्रिय सतगुरु ईश्वर प्रेमियों से कहना चाहूँगा कि ये कहानी सच हो या न हो, वो जहाज डूबा हो या नहीं, ये बताने का मकसद मेरा नहीं है बल्कि इस कहानी के केंद्र में एक भाव है - श्रद्धा। सतगुरु जब जीवन में आता है तो ब्रह्मज्ञान के माध्यम से परम की झलक दिखाकर हृदय में प्रेम उत्पन्न कर देता है और सर्वप्रथम एवं तत्क्षण इस प्रेम का प्रक्षेपण सतगुरु पर ही होता है जिसके फलस्वरूप हम एक अज्ञात और अपरिचित व्यक्ति(जिससे न हमारा खून का रिश्ता है, न कोई सामाजिक रिश्ता और न ही हम इसे किसी सांसारिक रिश्ते का नाम दे सकते हैं) से प्रेम की शुरुआत करते हैं। और जिसमें अज्ञात और अंजान से प्रेम करने का साहस हो, वही उस परमात्मा की ओर बढ़ता है जो हमारे लिए अज्ञात है। इसलिए सच्चे साधक को सबसे बड़ा जुआरी भी कहते हैं क्योंकि वो बिना किसी निश्चितता के अपने को दांव पर लगा देता है।
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ये भी सत्य है कि जो अज्ञात से प्रेम कर सकता है वही फिर ज्ञात(माँ, पिता, भाई - बहन, बच्चे, पत्नी आदि) से भी प्रेम कर सकता है हालाकि इस अवस्था से पहले हम जिसे प्रेम कहते हैं वो प्रेम नहीं बल्कि मोहपाश और आशक्तिमात्र है, साधारण प्रेम है। आध्यात्मिक यात्रा का प्रारम्भ तो प्रेम से ही होता है परंतु यदि प्रेम की उपमा दूध से की जाए तो श्रद्धा घी के समान है।
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सतगुरु के चरण पकड़कर हम इस यात्रा में ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते हैं तो इस प्रेम का विस्तार होता है, दायरा बढ़ता जाता है अर्थात हम पूरी प्रकृति से प्रेम करने लगते हैं। एक ब्रह्मज्ञानी जब प्रेमरूपी दूध को ध्यान के चूल्हे पर, सुमिरन की आंच पर, सेवा और सत्संग के ईंधन से तपाता है तो यही प्रेम श्रद्धारूपी घी में परिवर्तित हो जाता है। इस अवस्था के बाद घी को दूध में वापस नहीं लाया जा सकता हाँ केवल घी का ही आनंद लिया जा सकता है, ठीक उसी प्रकार जब प्रेम श्रद्धा में बादल जाता है तो केवल आनंद(फिर सतचितानन्द, आगे परमानंद) ही भोगा जा सकता है और फिर संसार के सारे सुख स्वतः ही फीके पड़ जाते हैं क्योंकि संसार में भी फिर हर जगह और हर वक़्त परमात्मा का ही एहसास शेष रह जाता है।
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प्रेम को श्रद्धा में परवर्तित करने वाला कीमियागर केवल और केवल सतगुरु होता है और श्रद्धा हमारे जीवन की वो सबसे बड़ी कीमिया है जो डूबते जहाज को बचा ही नहीं सकती वरन सही दिशा में ले जाकर मंजिल तक पहुंचा सकती है। प्रेमियों अब आप जान गए होंगे कि वो जहाज डूबा होगा कि नहीं ? मेरा जवाब है कि वो जहाज डूब सकता ही नहीं क्योंकि मेरे जीवन में स्वयं के अनुभव है और उन्ही की वजह से आज में अपने ये भाव शब्दों में पिरो पा रहा हूँ, कि श्रद्धावान का जहाज कभी डूब सकता ही नहीं क्योंकि श्रद्धा वो मजबूत डोर है जिसका एक छोर सतगुरु है और दूसरा परमात्मा और एक बार जो इस डोर से जो बंध जाता है न तो वो कभी टूटता है और न ही ये डोर क्योंकि सतगुरु और परमात्मा वास्तव में एक हैं। यात्रा शुरू तो होती है सतगुरु से और खत्म होती है परमात्मा पर क्योंकि ये सिक्के के दो पहलू की तरह हैं और कुछ नहीं।
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हाँ, श्रद्धा को कभी विश्वास न समझ लें क्योंकि विश्वास से संसार चलता है, परमात्मा केवल श्रद्धा का विषय है। विश्वास तो जीवन के किसी भी मोड पर टूट सकता है लेकिन जिस प्रकार घी को दूध में परिवर्तित नहीं किया जा सकता उसी प्रकार श्रद्धा पर पहुँचकर वापसी नहीं है क्योंकि श्रद्धा की नियति है परमात्मा और उसमें एकाकार होने के बाद वापसी नहीं और आवागमन बंद, यही हमारे शास्त्र भी कहते हैं। आओ हम सब मिलकर संकल्प लें कि हमें सतगुरु की आज्ञा में रहकर श्रद्धावान शिष्य बनना है, न की अनुयायी। गुरु से प्रेम करो, उसमें श्रद्धा हो हमारी क्योंकि जिससे हमारा प्रेम होता है हम वैसे ही होते जाते हैं।

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