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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ षष्ठ बिन्दु ~*
*= काजी का मुष्टि प्रहार =*
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दादूजी के पास सत्संग हो रहा था । वह काजी भी अवसर पाकर बोला धर्मों में तो अतिश्रेष्ठ मुसलमान धर्म ही है । कलमा पढ़े बिना किसी को भी बहिश्त(स्वर्ग) नहीं मिल सकता । राम - राम कहते हैं, वे तो काफिर होते हैं । दादूजी ने कहा - "आप ऐसा क्यो कहते हैं ? मुसलमान और हिन्दू दोनों ही अपने - अपने धर्म में चलते हैं ।
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दोनों ही ठीक हैं । किन्तु परमात्मा को कौन साधन - पथ प्रिय लगता है ? मैं आपसे पूछता हूँ आपकी किताब क्या कहती है ? यदि आत्मघात को ही धर्म बताती है, तब तो वह अधर्म ही है, धर्म नहीं कहा जाता, उससे तो सब दोखज में ही जाते हैं । तथा आप राम - राम कहने वाले को काफिर कहते हैं, यह भी मेरे विचार से तो ठीक नहीं है ।"
"काजी कजा न जान ही, कागद हाथ कतेब ।
पढतां पढतां दिन गये, भीतर नांहीं भेद ॥"
यह साखी सुनकर काजी क्रोधित हो गया और बोला "काफिर खुद समझता नहीं है और हमको उपदेश देता है ।"
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दादूजी ने कहा -
"सो काफिर जो बोले काफ, दिल अपना नहिं राखे साफ ।
सांई को पहचाने नाहीं । कूड़ कपट सब उनहीं मांहीं ॥१॥
सांई का फरमान न माने, कहां पीव ऐसे कर जाने ।
मन अपने में समझत नांहीं, निरखत चले आपनी छांहीं ॥२॥
जोर करे मसकीन सतावे, दिल उसके में दरद न आवे ।
सांई सेती नांहीं नेह, गर्व करे अति अपनी देह ॥३॥
इन बातन क्यों पावे पीव, पर धन ऊपर राखे जीव ।
जोर जुलम कर कुटुंब से खाय ।
सो काफिर दोखज में जाय ॥४॥"
(क्रमशः)

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