卐 सत्यराम सा 卐
साहिब सौं कुछ बल नहीं, जनि हठ साधै कोइ ।
दादू पीड़ पुकारिये, रोतां होइ सो होइ ॥
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार : @Reading for ever ~
एक बार की बात है कि एक गाँव में एक छोटा सा बालक अपने पिता के संग बहुत खुशहाल हालात में अपने घर आराम से रहता था. एक दिन बालक ने अपने पिता से शहर जाने के लिए कहा. पिता ने समझाया कि शहर अच्छा नहीं होता है. हम अपने गाँव में बहुत सुखी हैं, पर बालक अपनी जिद ठान कर बैठ गया.
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वह रोने लग गया, वह जिद कर कहने लगा कि शहर में मेला लगा है, सभी मित्रों ने देखा है. हम भी चलेंगे. आखिर पिता को मानना पड़ा, और वह अपने पुत्र को लेकर शहर पहुँच गया. बालक शहर की रंगीनियाँ देख कर बहुत खुश हुआ.
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इधर उधर घूमने के बाद वे मेला देखने भी पहुँच गए. मेले में बहुत झूले थे, खाने को भी बहुत कुछ था. अपने पिता की उंगली पकड़े वह मेले का आनंद लेता रहा, जो कुछ भी वह मांगता पिता लेकर देता रहा. उसे इतनी ख़ुशी पहले कभी नहीं मिली थी.
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वह इस ख़ुशी में इतना रम गया कि उसे होश ही न रहा कि कब पिता की उंगली छूट गयी. मेले की मस्ती में मस्त, कुछ देर बाद उसे महसूस हुआ कि उस से पिता की उंगली छूट गई थी. अब उसे रोना आ गया कि वह पिता को कहाँ ढूंढे.
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सारी रंगीनियाँ वहीँ थी, झूले भी वहीँ थे, खाने पीने का सब सामान वहीँ था, पर उसका रोना बंद नहीं हो रहा था. कुछ ही पलों में उसकी सारी ख़ुशी खत्म हो गयी , कारण ? पिता की ऊँगली का छूट जाना. दूसरी तरफ पिता भी दुखी था. उसका पुत्र खो गया था.
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अब पिता भी पुत्र को खोजने लगा. काफी देर के बाद पिता ने अपने पुत्र को खोज निकाला. अब उसके पुत्र को भी ख़ुशी हुई, कि पिता से उसका पुन: मिलन हो गया.
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इसी प्रकार से हम सभी जीव आत्माएं यहाँ इस संसार में, इस संसार कि रंगीनियो में इतना खो चुके है कि हमें अपने आप का कोई होश नहीं है. होश में वही होता है जिसे यह आभास हो जाता है कि उस से पिता की उंगली छूट चुकी है और वह पिता की खोज शुरू करता.
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जब हम उसकी खोज शुरू करतें है तब वह भी हमारी खोज शुरू करता है, यानि कि वह हमे सही मार्ग पर चलने में मददगार बनता है. हम उसे कभी नहीं ढूँढ सकते, वह ही हमें ढूँढता है. पर शुरुआत हमें ही करनी होती है. इसी लिए बाबा नानक ने भी कहा है कि तुम उसकी तरफ एक कदम बढाओ वह हज़ार कदम आगे होकर तुम्हे लेने आता है. धन्यवाद.

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