#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१४७. विरह विलाप । पंजाबी त्रिताल ~
कबहूँ ऐसा विरह उपावै रे, पीव बिन देखे जीव जावै रे ॥ टेक ॥
विपति हमारी सुनहु सहेली, पीव बिन चैन न आवै रे ।
ज्यौं जल भिन्न मीन तन तलफै, पीव बिन वज्र बिहावै रे ॥ १ ॥
ऐसी प्रीति प्रेम की लागै, ज्यों पंखी पीव सुनावै रे ।
त्यूं मन मेरा रहै निसवासर, कोइ पीव कूं आण मिलावै रे ॥ २ ॥
तो मन मेरा धीरजधरही, कोइ आगम आण जनावे रे ।
तो सुख जीव दादू का पावै, पल पिवजी आप दिखावे रे ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु इसमें विरहीजनों का विलाप दिखा रहे हैं कि हे स्वामी परमेश्वर ! कभी आप हमारे अन्तःकरण में ऐसा विरह उत्पन्न करोगे कि जिस से आपके दर्शन बिना हमारा जीव इस शरीर से निकल जाय ? हे विरहीजनों ! हमारी इस विरह की विपत्ति को सुनो, हमें पीव का दर्शन किए बिना अब शान्ति नहीं है । जैसे मछली जल से अलग होकर तड़फती है, ऐसे ही हम तड़फ रहे हैं । अब तो पीव के दर्शन किए बिना हमारे को ऐसा मालूम पड़ता हैं, जैसे कोई हमको वज्र से मार रहा हो । जैसे पपैया स्वाति नक्षत्र की बूँद के लिये पुकारता है, ऐसी ही हमारी प्रीति, प्रेम - पूर्वक पीव से लगी है । ऐसे हमारा मन रात - दिन पपैया बनकर पुकार रहा है । है कोई ऐसा विरहीजन ? जो हमको हमारे प्रीतम से मिला दे, तभी हमारा मन धैर्य को प्राप्त होवे अथवा जो पहले ही आकर कहे कि परमेश्वर, तुम्हारे को दर्शन देने आ रहे हैं । तब ही हमारा विरहीजनों का जीव सुख मानेगा, जब जीव अपना दर्शन दिखावेंगे ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें