#daduji
|| दादूराम सत्यराम ||
"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)" लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान |
= अथ षष्ठ विन्दु = सांभर के पंडित और काजियों में असंतोष =
दादूजी के उपदेश का प्रभाव अच्छा पड़ता था, थोड़ी देर भी उनके पास बैठने पर विक्षिप्त हृदय के व्यक्ति को भी शांति का अनुभव होने लगता था | इससे उनके पास जनता बहुत आने लगी थी | कुछ सांभर नगर के उपदेशक कथाबाचक ब्राह्मण जो मंदिरों में कथा करते थे और कुछ मुसलमान काजियों ने देखा कि हमारे पास आने वाले श्रोता भी दादू के पास जाने लगे हैं | यह तो अच्छा नहीं है, ऐसे आते-जाते हमारे आना भी छोड़ सकते हैं | इस कारण को लेकर उन लोगों ने दादूजी की निन्दा करना आरंभ कर दिया | वे अपनी कथावार्ताओं के समय प्रायः कहने लगे, दादू बिगड़ा हुआ व्यक्ति है | न वह हिन्दुओं की पद्धति के अनुसार चलता है और न मुसलमान धर्म के अनुसार चलता है | अतः उसके पास जाना, उसकी बातें सुनना दोनों धर्मों से भ्रष्ट होना है | किन्तु जो दादूजी के पास जाते थे उनको उक्त पंडितों और काजियों के कथन के विपरीत धर्म रक्षा का उपदेश प्राप्त होता था | वे किसी भी धर्म का खंडन करते ही नहीं थे | वे तो निर्गुण ब्रह्म की उपासना अर्थात् अंतः साधना का ही उपदेश करते थे | उक्त पंडितों तथा काजियों का दादूजी के पास जाने वाले भक्तों पर विपरीत ही प्रभाव पड़ा | कारण, दादूजी के पास जाने पर तो उनको शांति मिलती और इन लोगों के पास आने पर ये अनुचित शिक्षा अर्थात् दादूजी की निन्दा का ही रूपक बनाकर कहते थे | इससे उन लोगों का उक्त पंडितों व् काजियों के पास जाना-आना कम हो गया | तब उनको अधिक ईर्ष्या सताने लगी | फिर कुछ ब्राह्मण पंडितों ने और काजियों ने मिलकर अपना संगठन किया और सब मिलकर दादूजी के पास गये तथा उनको कहा तुम को मूर्ति पूजा या नमाज गुजारना चाहिये | यहां तुम अपनी मन मानी चाल से नहीं चल सकते | तब उनकी सब बातें सुनकर दादूजी ने नम्रतापूर्वक शांति से प्रथम ब्राह्मण पंडितों को कहा -
"अपने अमलों छूटिये, काहू के नांहीं |
सोई पीड़ पुकार सी, जा दुःखे मांहीं ||"
पंडित प्रवरो ! व्यक्ति अपने ही सुकर्मों से जन्मादि दुःखों से छुटता है, किसी दूसरे के कर्मों से नहीं छुटता जिसके भीतर पीड़ा होती है, वही पुकारता है | अतः मैं मूर्तिपूजा नहीं करता हूँ तो मुझे हानि है, आपको क्या हानि है ? आप लोग क्यों व्यथित होते हैं | मुसलमान काजियों को कहा -
"जो हम नहीं गुजारते, तुमको क्या भाई,
सीर नहीं कुछ बंदगी कहु क्यों फरमाई ||"
अर्थात् मैं नमाज नहीं गुजारता तो तुमको इससे क्या हानि है ? मैं आपकी बंदगी में तो कुछ सीर का दावा नहीं करता हूं | फिर आप मुझे इस प्रकार डाँटने का साहस क्यों करते हैं | जैसा मैं करूंगा वैसा भरूंगा, आप करेंगे आप भरेंगे | मेरे नहीं करने से आप लोगों को कोई हानि नहिं हो सकेगी | अतः आप लोग व्यर्थ ही काहे को क्षुब्ध होकर दूसरों को भी विक्षिप्त करते हैं |
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें