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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१४८.(गुजराती भाषा) पंजाबी त्रिताल ~
अमे विरहणिया राम तुम्हारड़िया ।
तुम बिन नाथ अनाथ, कांइ बिसारड़िया ॥ टेक ॥
अपने अंग अनल परजाले, नाथ निकट नहिं आवे रे ।
दर्शन कारण विरहनि व्याकुल, और न कोई भावे रे ॥ १ ॥
आप अपरछन अमने देखे, आपणपो न दिखाड़े रे ।
प्राणी पिंजर लेइ रह्यो रे, आड़ा अन्तर पाड़े रे ॥ २ ॥
देव देव कर दरशन माँगे, अन्तरजामी आपे रे ।
दादू विरहणी वन वन ढ़ूँढ़े, ये दुख कांइ न कापे रे ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, विरहीजनों का विलाप बता रहे हैं कि हे राम ! हम तो आपके ही विरहीजन हैं । हमको आपने क्यों विसार दिया ? हे नाथ ! हम अपने शरीर को विरह रूप अग्नि से जला रहे हैं, क्योंकि आप हमारे नजदीक होते हुए भी, प्रकट नहीं हो रहे हो । आपके दर्शनार्थ हम विरहीजन अति व्याकुल हो रहे हैं । हमको आपके सिवाय ओर कोई भी देवी - देवता अच्छा नहीं लगता है । आप छिपकर हमको देख रहे हो, परन्तु हमको आपका स्वरूप नहीं दिखाते हो । मैं प्राणधारी, शरीर रूप पिंजर इसलिये धारण किये हुए हूँ कि आप हमको दर्शन दोगे । किन्तु आप तो हमसे दूर रहने के लिये, आवरण रूप पर्दा ही डाल रहे हो । हे अन्तर्यामी ! हम आपसे आपके दर्शन मांगते हैं, आप दर्शन देओ । हम विरहीजन आपको अनेक प्रकार के साधनों द्वारा, आपको वन - वन में ढ़ूँढ़ रहे हो । इस हमारे दुःख को क्यों नहीं काटते हो ?
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