शनिवार, 7 मार्च 2015

२२. विपर्यय को अंग ~ ६

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२२. विपर्यय को अंग * 
*देव मांहि तैं देवल प्रगट्यौ,*
*देवल मैं तैं प्रगट्यौ देव ।*
*सिष गुरु ही उपदेसन लागौ,*
*राजा करै रैंक की सेब ॥*
*बंध्या पुत्र पंगु इक जायौ,*
*ताकौ घर खोवन की टेव ।*
*सुन्दर कहै सु पण्डित ज्ञाता,*
*जो कोउ याकौ जांनै भेव ॥६॥*
*देव मांहि तैं देवल प्रगट्यौ* : परब्रह्म परमात्म रूप देवता में से देवालयरूप विश्व या देह प्रकट हुआ ।
*देवल मैं तो प्रगट्यौ देव* : या विश्व अथवा देह रूप देवालय से परमात्मा परब्रह्म रूप देव प्रकट हुए ।
*सिष गुरु ही उपदेसन लाग्यौ* : साधक का निर्विकार मनरूप शिष्य ही आत्मरूप गुरु को उपदेश करने लगा ।
*राजा करै रंक की सेव* : राजा(स्वामी) आत्मा ही इस रैंक(दीन हीन) प्रतीत होने वाले शरीर की सेवा(योगक्षेम वहन) करने लगा ।
*बंध्या पुत्र पंगु इक जायो* : वासना(कामना) रहित बुद्धि रूप वन्ध्या(बांझ स्त्री) ने निश्चिल तत्त्वज्ञान रूप एक पंगु(चलने फिरने में असमर्थ) पुत्र पैदा किया । इस पंगु पुत्र ने अपने घर(देहाध्यास) को ही नष्ट करने का बीड़ा उठा लिया ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हम तो उसी को ज्ञानी या पण्डित मानते हैं जो इन विपरीत शब्दों का वास्तविक अर्थ जानता है ॥६॥ 
(क्रमशः)

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