मंगलवार, 3 मार्च 2015

#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥ 
१४९. विरह प्रश्‍न । राज विद्याधर ताल ~
पंथीड़ा बूझै विरहणी, कहिनैं पीव की बात,
कब घर आवै कब मिलूँ, जोऊँ दिन अरु रात, पंथीड़ा ॥ टेक ॥
कहाँ मेरा प्रीतम कहाँ बसै, कहाँ रहै कर वास ?
कहँ ढ़ूँढ़ूँ कहँ पाइये, कहाँ रहे किस पास, पंथीड़ा ॥ १ ॥
कवन देश कहँ जाइये, कीजे कौन उपाय ?
कौन अंग कैसे रहे, कहा करै, समझाइ, पंथीड़ा ॥ २ ॥
परम सनेही प्राण का, सो कत देहु दिखाइ ।
जीवनि मेरे जीव की, सो मुझ आनि मिलाइ, पंथीड़ा ॥ ३ ॥
नैन न आवै नींदड़ी, निशदिन तलफत जाइ ।
दादू आतुर विरहणी, क्यूं करि रैन विहाइ, पंथीड़ा ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव विरह के सहित प्रश्‍न कर रहे हैं कि हे संतरूप विरहीजनों । मैं आपसे पूछती हूँ कि क्या आप पीव के मार्ग को जानते हो ? हमको कहो न, उनके कब दर्शन होंगे ? हमारे हृदय रूपी घर में कब आवेंगे ? हम उनसे कब मिलेंगे ? रात - दिन हम बाट देख रहे हैं । वह हमारे प्रीतम कहाँ है ? कहाँ वास करके रहते हैं । मैं उनको कहाँ ढूँढूं ? कहाँ मिलेंगे ? हे संतों ! वह किसके पास रहते हैं ? उनका कौनसा देश है ? कहाँ जावें ? अब हम विरहीजन क्या उपाय करें ? उनका अंग कैसा है और कैसे रहते हैं ? हे संतों ! अब आप हमको समझा कर कहो, क्या करें ? हमारे प्राणों के स्नेही को कहीं हमें दिखाइये ? वह तो हमारे जीव की जीवन हैं । हे संतों ! उनको हमसे मिलाओ । अब तो हमारे नेत्रों में नींद भी नहीं आती है और रात दिन को तड़फते - तड़फते बिता रहे हैं । अब हम विरहीजन, अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं । हे संतों ! यह उम्र रूपी रात्रि कैसे बितावें ?

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