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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१५०. समुच्चय उत्तर । राज विद्याधर ताल ~
पंथीड़ा पंथ पिछाणी रे पीव का, गहि विरहे की बाट ।
जीवत मृतक ह्वै चले, लंघे औघट घाट, पंथीड़ा ॥ टेक ॥
सतगुरु सिर पर राखिये, निर्मल ज्ञान विचार ।
प्रेम भक्ति कर प्रीत सौं, सन्मुख सिरजनहार, पंथीड़ा ॥ १ ॥
पर आतम सौं आत्मा, ज्यों जल जलहि समाइ ।
मन हीं सौं मन लाइये, लै के मारग जाइ, पंथीड़ा ॥ २ ॥
तालाबेली ऊपजै, आतुर पीड़ पुकार ।
सुमिर सनेही आपणा, निशदिन बारम्बार, पंथीड़ा ॥ ३ ॥
देखि देखि पग राखिये, मारग खांडे धार ।
मनसा वाचा कर्मणा, दादू लंघे पार, पंथीड़ा ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, उपरोक्त प्रश्नों का समुच्चय उत्तर दे रहे हैं कि हे विरहीजनों ! उस पीव के मार्ग को अब आप पहचानो । विरहरूपी मार्ग को ग्रहण करो । जो जीवित ही आपा - अभिमान से रहित मृतक तुल्य हो जाते हैं, वे विरहीजन काम - क्रोध आदि अथवा शरीर - अध्यास रूपी घाट से जो मुक्त होते हैं और सतगुरु को सिर पर धार कर उनके निर्मल ज्ञान का विचार करते हैं और प्रीति - पूर्वक निष्काम प्रेमाभक्ति में लगे हैं, वे सिरजनहार का सन्मुख दर्शन पा लेते हैं । और हे विरहीजनों ! आप अपनी व्यष्टि आत्मा को समष्टि परमात्मा में अभेद करिये, जैसे जल में जल मिल जाता है । अपने व्यष्टि मन को, समष्टि चैतन्यरूप मन में लगाइये । और अखंड लय रूपी मार्ग पर जाइये । ताला = तलप और बेली = विलाप सहित अन्तःकरण में पुकारिये । इस प्रकार अपने स्नेही परमेश्वर का रात - दिन स्मरण करिये । परन्तु विचार करके विरहरूपी मार्ग पर चलना । परमेश्वर की प्राप्ति का मार्ग, तलवार की धार के समान तीक्ष्ण है । मन - वचन - कर्म करके विरहरूपी मार्ग को अपनाइये ।
Recognize the path to your Beloved, O traveler,
and take the route of the anguished lover in separation.
One who treads as the living dead
crosses the impassable ghat.
Keep the Master’s grace on your head
and reflect on his pure teachings.
Develop love and devotion with endearment
and keep the thought of the Creator always before you.
Try to merge yourself into God, like water into water.
Fix your mind within by following the path
of the Sound Current.
A yearning will arise; make then an intense
and anguished call.
Repeat the Name of your Beloved day and night,
again and again.
Watching, carefully place your foot;
the path is like the edge of a sword.
With care in thought, word and deed,
you shall cross to the other shore, O Dadu.
(English translation from "Dadu~The Compassionate Mystic"
by K. N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)
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