शुक्रवार, 6 मार्च 2015

२२. विपर्यय को अंग ~५

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२२. विपर्यय को अंग * 
*मछरी बगुला कौं गहि खायौ,*
*मूसै खायौ कारौ सांप ।* 
*सूवै पकरि बिलैया खाई,*
*ताकै मुये गयौ संताप ॥* 
*बेटी अपनी मा गहि खाई,*
*बेटै खायौ अपनौं बाप ।* 
*सुन्दर कहै सुनौं रे संतहु,*
*तिनकौं कोऊ न लाग्यौ पाप ॥५॥* 
*मछरी बगुला को गहि खायो* : विवेक रूप बुद्धि मछली ने मानव के हृद्गत दम्भ एवं पाषण्ड रूप बगुला को खा लिया(नष्ट कर दिया) 
*मूसै खाये कारो साँप* : चूहा रूप यथार्थ ज्ञान या ज्ञानी ने संशय(द्वैत भ्रम) रूप भयंकर विष वाले काले साँप को भी खा डाला । 
*सूवै पकरि बिलैया खाई* : ज्ञान रूप तोता ने अविद्या रूप बिल्ली को खा डाला । उस अविद्या के नष्ट होने से जिज्ञासु का समस्त त्रिविध संताप समाप्त हो गया । 
*बेटी अपनी माँ गहि खाई* : ब्रह्मविद्यारूप बेटी ने मायारूप माता का भक्षण कर लिया । 
*बेटै खायो अपने बाप* : आत्मज्ञान रूप ने संसार या देह रूप पिता को ही अपना भक्ष्य बना लिया । 
महाराज *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हे सन्त जन ! इतने पर भी आश्चर्य यह है कि उस बेटी को मातृहत्या या पितृहत्या का कोई पाप नहिं लगा ॥५॥
(क्रमशः)

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