शुक्रवार, 6 मार्च 2015

#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥ 
१५२. विरह विनती । गुजराती मकरन्द ताल ~
गोविन्दा ! गाइबा दे रे, आडड़ी आन निवार, गोविन्दा गाइबा दे रे ।
अनुदिन अंतर आनन्द कीजे, भक्ति प्रेम रस सार रे ॥ टेक ॥
अनभै आत्म अभै एक रस, निर्भय कांइ न कीजै रे ।
अमी महारस अमृत आपै, अम्हे रसिक रस पीजे रे ॥ १ ॥
अविचल अमर अखै अविनाशी, ते रस कांइ न दीजे रे ।
आतम राम अधार अम्हारो, जन्म सुफल कर लीजे रे ॥ २ ॥
देव दयाल कृपाल दमोदर, प्रेम बिना क्यों रहिये रे ।
दादू रंग भर राम रमाड़ो, भक्त - बछल तूँ कहिये रे ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु इसमें विरह सहित विनती कर रहे हैं कि हे गोविन्द परमेश्‍वर ! आपका नाम स्मरण करने दीजिये । आपके भजन में अन्तराय करने वाली जो भी अड़चनें हैं, उनको दूर करिये और आपका स्मरण हमको करने दीजिये । हमारे हृदय में प्रतिदिन आपकी प्रेमाभक्ति रूप सार - अमृत को पान करते रहें । हे गोविन्द ! अभय और एक - रस आत्मा के अनुभव द्वारा हमें निर्भय क्यों नहीं करते हो और आप अमर भाव रूप महान् अमृत - रस दें, तो हम विरही रसिकजन उस रस का पान करें । जो अचल, अमर, अक्षय और अविनाशी आपका स्वरूप रस है, वह रस आप क्यों नहीं पिलाते हो ? हमारे तो केवल आप, आत्म - स्वरूप राम ही आधार हो । आपका साक्षात्कार करके हम अपने जन्म को सफल करें, ऐसी कृपा कीजिये । हे देव ! दयालु ! कृपालु ! दामोदर ! आपकी प्रेमा - भक्ति के बिना हम कैसे जीवित रहें । आप हमारे हृदय में एकत्व - भावना रूप भक्ति रूपी रंग भरकर अपने स्वरूप में हमको रमाओ । आप भक्त वत्सल हो ।
नगर निराने देहुरे, गुरु राखे पधराइ । 
स्वामी पद यह गावते, पुतली गई हिराइ ॥ १५२ ॥
दृष्टान्त ~ नरेना के राजा नारायण सिंह और भोजराज को भगवान् कृष्ण ने स्वप्न में आज्ञा दी कि तुम मेरे रूप ब्रह्मऋषि दादूदयाल को नरेना में लाकर विराजमान करो । तब दोनों भ्राताओं ने महाराज को जाकर प्रणाम किया और बोले ~ नरेना में पधारिये । ब्रह्मऋषि को भी भगवान् ने आज्ञा दी कि आप नरेना में अपना अन्तिम धाम बनाइये । तब ब्रह्मऋषि को राजा ने लाकर मन्दिर में विराजमान किया । नगरवासी लोग राजा के सहित महाप्रभु के उपदेश सुनने लगे । उस मन्दिर में २४ औतारों के चित्राम मँडे हुए थे । कई उपदेश सुनते - सुनते चित्राम देखने लगे और बोलने लगे, यह फलाने भगवान, यह फलाने भगवान् । उस समय महाप्रभु ने उपरोक्त पद गाया, ‘गोविन्दा गाइबा देरे, आडड़िया आण निवार” । हे गोविन्द ! आपका स्मरण करने दो । आपके स्मरण में अन्तराय करने वाले २४ औतारों के यह चित्राम हमारे और आपके बीच अन्तराय करते हैं, हम तो आपको परिपूर्ण ब्रह्म मानते हैं । इतना कहते ही मन्दिर में जो चित्राम थे वे साफ हो गये । यह देखकर राजा के सहित सम्पूर्ण नगरवासी नत - मस्तक होकर, नमस्कार करके धन्य - धन्य कहने लगे ।

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