॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*२२. विपर्यय को अंग *
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय को अंग *
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*कुंजर कौं कीरी गिलि बैठी,*
*कुंजर कौं कीरी गिलि बैठी,*
*सिंघ हि खाइ अघानौ श्याल ।*
*मछरी अग्नि मांहि सुख पायौ,*
*मछरी अग्नि मांहि सुख पायौ,*
*जल मैं हुती बहुत बेहाल ॥*
*पंगु चढ़यौ पर्वत कै ऊपरि,*
*पंगु चढ़यौ पर्वत कै ऊपरि,*
*मृतक हि देखि डरानौ काल ।*
*जाकौ अनुभव होइ सु जानै,*
*जाकौ अनुभव होइ सु जानै,*
*सुन्दर ऐसा उलटा ख्याल ॥३॥*
*कुंजर कौं कीरी गिलि बैठी* : यहाँ सूक्ष्म विवेक बुद्धि से अपने मन की काम क्रोध आदि विशाल वासनाओं को जीतना ही 'चींटी द्वारा हाथी को निगल जाना' कहलाता है ।
*सिंघ हि खाइ अघानी स्याल* : यहाँ, गीदड़ जैसे अल्पप्राण जीवात्मा का आत्मज्ञान के बल पर अज्ञान को जीतना ही 'सिंह को भोज्य रूप में प्राप्त कर गीदड़ का तृप्त होना' है ।
*मछली अग्नि माँहि सुख पायौ* : यहाँ जीवात्मा का ब्रह्मज्ञान रूप अग्नि में सुख पाना ही 'मछली का अग्नि में सुख पाना' बताया गया है । जबकि जीवात्मा सांसारिक विषयों के जल में मग्न होता हुआ अत्यधिक असन्तुष्ट था ।
*पंगु चढयौ पर्वत के ऊपरि* : सांसारिक वासनाओं से रहित होलर मन पर विजय प्राप्त करना ही 'हस्तपादविहीन(पंगु) का पर्वत चढ़ना' है ।
*मृतक हि देखि डरांनौ काल* : साधक का जीवत-मृतक(जीवन्मुक्त) अवस्था में पहुँच कर काल अर्थात् मृत्यु को जीतना ही 'काल का मृतक देखकर भयभीत होना' है । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जो साधक सन्तों का संग कर, अपने अनुभवज्ञान द्वारा इन गूढ शब्दों(उलटवांसियों) का अर्थ जान लेता है वही ब्रह्मानन्द का स्वाद ले सकता है ॥३॥
(क्रमशः)
*कुंजर कौं कीरी गिलि बैठी* : यहाँ सूक्ष्म विवेक बुद्धि से अपने मन की काम क्रोध आदि विशाल वासनाओं को जीतना ही 'चींटी द्वारा हाथी को निगल जाना' कहलाता है ।
*सिंघ हि खाइ अघानी स्याल* : यहाँ, गीदड़ जैसे अल्पप्राण जीवात्मा का आत्मज्ञान के बल पर अज्ञान को जीतना ही 'सिंह को भोज्य रूप में प्राप्त कर गीदड़ का तृप्त होना' है ।
*मछली अग्नि माँहि सुख पायौ* : यहाँ जीवात्मा का ब्रह्मज्ञान रूप अग्नि में सुख पाना ही 'मछली का अग्नि में सुख पाना' बताया गया है । जबकि जीवात्मा सांसारिक विषयों के जल में मग्न होता हुआ अत्यधिक असन्तुष्ट था ।
*पंगु चढयौ पर्वत के ऊपरि* : सांसारिक वासनाओं से रहित होलर मन पर विजय प्राप्त करना ही 'हस्तपादविहीन(पंगु) का पर्वत चढ़ना' है ।
*मृतक हि देखि डरांनौ काल* : साधक का जीवत-मृतक(जीवन्मुक्त) अवस्था में पहुँच कर काल अर्थात् मृत्यु को जीतना ही 'काल का मृतक देखकर भयभीत होना' है । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जो साधक सन्तों का संग कर, अपने अनुभवज्ञान द्वारा इन गूढ शब्दों(उलटवांसियों) का अर्थ जान लेता है वही ब्रह्मानन्द का स्वाद ले सकता है ॥३॥
(क्रमशः)

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