गुरुवार, 5 मार्च 2015

२२. विपर्यय को अंग ~४

#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय को अंग * 
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*बूंद हि मांहिं समुद्र समांनौ,*
*राई मांहि समांनौ मेर ।*
*पानी मांहिं तुबिंका बूडी,*
*पाहन तिरत न लागी बेर ॥*
*तीनि लोक मैं भया तमास,*
* सूरज कियौ सकल अंधेर ।*
*मूरिख होइ सु अर्थ हि पावै,*
*सुन्दर कहै शब्द मैं फेर ॥४॥*
*बूँद हि मांहि समुद्र समांनौ* : अर्थात् आत्मा में परमात्मा का भाव भर जाना ।
*राई मांहि समांनौ मेर* : बीज में वृक्ष के समान आत्मा या ब्रह्म में समस्त सांसारिक पदार्थों का लीन हो जाना ।
*पांनी मांहि तुम्बिका डूबी* : संसारकी वासनाओं के सरोवर में आत्मा का डूब जाना ।
*पाहन तिरतन लागी बेर* : प्रस्तर के समान अगानी जीव को भी ज्ञान - साधन द्वारा भवसागर को पार कर जाने में कोई विलम्ब नहीं लगता ।
*सूरज कियो सकल अन्धेर* : ज्ञानरूप सूर्य द्वारा सांसारिक भेदज्ञान(द्वेत भ्रम) रूप समस्त अन्धकार का लुप्त हो जाना ।
*तीन लोक में भया तमासा* : ऐसा होने पर समस्त जगत् को यह आश्चर्यमय खेल दिखायी देता है ।
*मूरख होइ सु अर्थ हि पावै* : सांसारिक दृष्टि से रहित होकर परम आनन्द को या परम ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है ।
*सुन्दरदासजी कहते हैं* - क्योंकि यहाँ शब्दों के उलट फेर में ही अर्थ का परिवर्तन छिपा हुआ है ॥४॥
(क्रमशः)

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