॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१५१. अनुक्रम से उत्तर । राज मृगांक ताल ~
साध कहैं उपदेश विरहणी !
तन भूले तब पाइये, निकट भया परदेश, विरहणी ॥ टेक ॥
तुम ही माहैं ते बसैं, तहाँ रहे कर वास ।
तहँ ढ़ूँढ़े पीव पाइये, जीवन जीव के पास, विरहणी ॥ १ ॥
परम देश तहँ जाइये, आतम लीन उपाइ ।
एक अंग ऐसे रहै, ज्यों जल जलहि समाइ, विरहणी ॥ २ ॥
सदा संगाती आपणा, कबहूँ दूर न जाइ ।
प्राण सनेही पाइये, तन मन लेहु लगाइ, विरहणी ॥ ३ ॥
जागै जगपति देखिये, प्रकट मिल है आइ ।
दादू सन्मुख ह्वै रहै, आनन्द अंग न माइ, विरहणी ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव, इसमें उपरोक्त शब्दों का उत्तर दे रहे हैं । मुक्त पुरुष कहते हैं कि हे विरहीजनों ! जब तुम शरीर का अध्यास भूलोगे, तब तुम्हारे प्रीतम को प्राप्त कर लोगे, क्योंकि वह तुम्हारे अत्यन्त समीप में होता हुआ भी, विदेशी की तरह हो रहे हैं । वह तो तुम्हारे अन्तर ही वास करते हैं । तुम अपनी अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा उसके स्वरूप में स्थिर रहो । अन्तःकरण में ढ़ूंढ़ो तो पीव, जीव की जीवन रूप, जीव के पास ही प्राप्त होंगे । सहजावस्था में आइये । यही तुम्हारी व्यष्टि आत्मा को समष्टि परमात्मा में लीन करने का साधन है । हे विरहीजनों ! इस प्रकार ‘एक अंग’ कहिए एक रूप होकर उसमें रहो । जैसे जल में जल समा जाता है, ऐसे ही समाकर रहो । वह परमेश्वर सदा जीव के साथ रहते हैं, कभी भी अलग नहीं होते । हे विरहीजनों ! तुम अपने मन को विचार द्वारा उसमें लगाकर, प्राण स्नेही को प्राप्त करिये । परन्तु ज्ञान अवस्था में जगतपति परमेश्वर का दर्शन पाइये । तो वह तुम्हारे अन्तःकरण में ही प्रकट होकर, निजरूप से तुमको भान होने लगेंगे । हे विरहीजनों ! इस प्रकार जब तुम सन्मुख होकर रहोंगे तो तुम्हारे हृदय में अपार आनन्द उत्पन्न होवेगा ।
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